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जीवन्धरचम्पू में जैनाचार क्षेमपुरी से निकलकर जीवन्धर आगे बढ़ गये। उनके शरीर पर जो मणिमय आभूषण थे उन्हें वे किसी को देना चाहते थे परन्तु अटवी में किसके लिए देवें? यह विचार उनके मन में चल रहा था उसी समय एक किसान उन्हें आता हुआ दिखा। जीवन्धरकुमार ने उससे जब कुशल समाचार पूछा तब वह विनय से गद्गद होता हुआ बोला
वृषलोऽपि विमीतः सन्मुवाच कुरुकुम्जरम् ।
कुशलं साम्प्रतं युष्मदर्शनेन विशेषतः ॥६॥ पृ. १२२ विनयावनत किसान ने जीवन्धरकुमार से कहा कि कुशल है और आपके दर्शन से इस समय विशेष रूप है।
इसके उत्तर में जीवन्धरकुमार ने कहा कि असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन छह कर्मों से उत्पन्न कुशलता, कुशलता नहीं कहलाती क्योंकि वह नाना प्रकार की आशारूपी लताओं की उत्पत्ति के लिए कन्द के समान है। सच्ची कुशलता तो मोक्ष से उत्पन्न होनेवाले अनन्त सुख की प्राप्ति में है। वह अनन्त सुख आत्मसाध्य है-आत्मा से ही प्राप्त किया जाता है और आत्मरूप है।
वह मोक्षजनित सुख रत्नत्रय की पूर्णता होने पर आत्मा को प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीन को रत्नत्रय कहते हैं । इनमें वीतराग-- सर्वज्ञ देव, उनके द्वारा प्रतिपादित आगम और जीवाजीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। भव्य जीवों के प्रमुख आभूषण-स्वरूप जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है वे सम्यग्दर्शन के होने पर ही होते हैं । जिस प्रकार शरीर के समस्त अंगों में मस्तक प्रधान अंग है और इन्द्रियों में नेत्र प्रधान इन्द्रिय है उसी प्रकार मोक्ष के अंगों में सम्यग्दर्शन प्रधान अंग है ।
ज्ञान, दर्शन और सुख रूप लक्षण से युक्त अतिशय निर्मल आत्मा, सब प्रकार की अपवित्रता के प्रमुख कारणस्वरूप शरीरादिक से भिन्न कहा गया है। इस प्रकार संशयरहित आत्मतत्त्व का ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान कहलाता है।।
सम्यग्ज्ञानी जीव के द्वारा परपदार्थ का जो त्याग किया जाता है उसे सम्पकचारित्र कहते हैं । सम्यक्चारित्र के धारक जोव अनगार-मुनि और सागार-गृहस्थ के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं। इनमें अनगार-मुनि हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का सर्वथा त्याग करते हैं और गृहस्थ एकदेश त्याग करते हैं ।
इस प्रकार संक्षेप से रत्नत्रय का स्वरूप बताकर जीवन्धरकुमार ने उस किसान से कहा कि जिस प्रकार किसी बड़े बैल के द्वारा धारण करने योग्य भार को उसका बछड़ा नहीं धारण कर सकता है इसी प्रकार सुम भी मुनि का धर्म धारण करने के
१. पृष्ठ १२२-१२४. रत्नों क ७-१६ ।
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महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन