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अद्भुत छाया ) को विस्तृत करनेवाले इस जिननन्दनतुम – जिनबालकरूप वृक्ष ने शीघ्र हीं मन्द मुसकान रूप फूलों को धारण किया था ।
इसी सन्दर्भ में कुछ उद्धरण असग कविकृते वर्धमानचरित के भी. द्रष्टव्य हैं जिनमें धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्वरचम्पू की सुतियों से सादृश्य स्पष्ट ही परिलक्षित होता है
जीवन्धरचम्पू में हरिचन्द्र का नगरी वर्णन देखिए-
प्रथिता विभाति नगरी गरीयसी धुरि यत्र रम्य सुदतीमुखाम्बुजम् । कुरुविन्द कुण्डलविभाविभावितं प्रविलोक्य कोपमिव मन्यते जनः ॥ २५ ॥ — जीवन्धरचम्पू, लम्भ ६ देखो, यह सामने एक बड़ी प्रसिद्ध नगरी सुशोभित हो रही है। यहाँ किसी सुन्दरी स्त्री का मुखकमल जन पश्चराग मणि निर्मित कुण्डलों की प्रभा से रक्तवर्ण हो जाता है तब उसे देख उसका पति समझने लगता है कि मानो इसे क्रोध आ गया हूँ । मारत में असग कवि का नगरी वर्णन देखिए
यत्रोल्लसत्कुण्डल- पद्मराग च्छायावतंसारुणित । ननेन्दुः |
प्राग्रते कि कुपिलेति कान्ता प्रियेण कामाकुलितो हि मूहः ॥ २६ ॥
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- वर्धमानचरित, सर्ग १
जहाँ शोभायमान कुण्डों में खचितपद्मराग मणियों की वाली स्त्री क्या यह कुपित हो गयी है ? इस भय से पति के द्वारा सो ठीक हैं क्योंकि काम से आकुलित मनुष्य मूड होता ही है । जीवन्धरचम्पू में रानी विजया का सौन्दर्य वर्णन देखिएसौदामिनीव जलदं नत्रमञ्जरीव चूतद्रुमं कुसुमसंपदिवाद्यमासम् । ज्योत्स्नेव चन्द्रमसमचन्द्रविमेव सूर्य तं भूमिपालकमभूषयदायताक्षी ||२७|| — जीवन्धरचम्पू, लम्भ १ जिस प्रकार बिजली मेव को, नूतन मंजरी आम्रवृक्ष को, पुष्पसम्पत्ति चैत्र मास को दिन चन्द्रमा को, और प्रभा सूर्य को अलंकृत करती है उसी प्रकार वह
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विजया रानी राजा सत्यन्धर को अलंकृत करती थी ।
इसी तरह वर्धमान परित का भी रानी वर्णन देखिएविद्युल्लतेवाभिनवाम्बुवाहं चूतदुमं नूतनमञ्जरी ।
कान्ति से लालमुखप्रसन्न की जाती है
स्फुरत्प्रभै वाम-पद्मरागं विभूषयामास तमायताक्षी ॥ ४४ ॥
मानचरित, सर्ग १
P. हरिचन्द्र और अद्दाम की मणी के आदान-प्रदान' को सूचित करनेवाले अन्य अनेक उदाहरण हमने भारतीय नाराणों से प्रकाशित 'पुरुदेव चम्पू प्रबन्धक प्रत में दिये हैं।
२.
मानवरि मेरे द्वारा सम्पादित और हिन्दी में अनूदित होकर जीवराज इत्थमाला सोलापूर से प्रकाशित हो रहा है। इसका एक संस्करण जिनदास शास्त्र मराठी अनु11 के साथ सोलापुर से बहुत पहले भी प्रकाशित हुआ था।
आदान-प्रदान
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