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यतश्च कमलयुगल ने अनेक प्रकार से तप में ( पक्ष में, घुप में ) स्थिर रहकर पुण्य-संचय किया था इसीलिए फलस्वरूप उसके वोनों चरण बन सके थे, पदि ऐसा न होता तो दोनों चरण हंसों (पक्ष में, पादकटकों ) का आश्रय लेकर हृदयहारी मनोहर शब्द बसे करते ? अब दमयन्ती के चरणयुगल का वर्णन करते हुए श्रीहर्ष की सूनि देखिए
जलजे रविसेवयेव' ये पदमेतत्पदतामयापतुः । ध्रुवमेत्य सतः सहसकी कुरुतस्ते विधिपत्रदम्पती ॥३८
-नैषधीयचरित, सर्ग २ ऐसा जान पड़ता है कि जो दो कमल, सूर्य की उपासना करने से दमयन्ती के चरणयुगल-रूप पद को प्राप्त हुए थे उन्हें इंसदम्पती अपनी रुनझुन से मानो सहंसकहंससहित ( पक्ष में, पादकटक से सहित ) करते हैं ।
यहाँ हरिचन्द्र के 'बहुधातपःस्थिते' पव के लेप ने जो चमत्कार उत्पन्न किया है वह श्रीहर्ष के 'रविसेवयेव' इस साधारण पद में नहीं आ सका है।
_ 'यस्य च रिपु महिला बनमध्यमध्यासीना.........स्वशिशुभ्यः पूर्ववासनावशेन क्रीडाराजहंसमानयेति निर्भसंयमयो वाष्पाम्बुपूरपूरित-वदन-कमलनयनमीनप्रतिबिम्बपरिष्कृतस्तनान्तरसरोवर-प्रतिफलित-चन्द्रमसं निर्दिश्यायं ते हंसो ममापि विरहाग्निव्यालीढवपुषस्तथेतिपरिसान्त्वयामासुः ।'
जीवन्धरचम्पू की इस गध का बहुत कुछ भाव नैषधीयचरित के निम्नांकित्त श्लोक में अवतीर्ण हुआ हैएतद्भौतारिनारी गिरिबिलविंगलद्वासरा निःसरन्ती
स्त्रक्रीडाहंसमोहनहिलशिशुभृशप्रापितोनिद्रचन्द्रा। आनन्यद्भरियत्तन्नयनजलमिलच्चन्द्रहंसानुबिम्धप्रत्यासत्तिप्रहष्यसनयविहसितैराश्वसीयश्वसीच्च ।।२८।।
-नषधीयचरित, सर्ग १२ अब रिचन्द्र को सूक्तिसुधा से पुरुदेवचम्मू के कर्ता अहहास कितने प्रभावित है, इसके कुछ उदाहरण देखिएबालक धर्मनाथ के कपोलों की लाली का वर्णन करते हुए हरिचन्द्र ने कहा है
मोत्सुक्यनुना शिशुमप्यसंशयं चुचुम्ब मुक्तिनिभृतं कपोलयोः । माणिक्यताटङ्ककरापदेशवस्तथाहि ताम्बूलरसोन संगतः ॥९-६।।
-धर्मशम्पिदय यद्यपि उस समय भगवान् बालक ही थे फिर भी मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने उत्कण्ठा से प्रेरित हो चनके कपोलों का निःसन्देह जमकर चुम्बन कर लिया था इसीलिए तो मणिमय कर्णाभरण की किरणों के बहाने उनके कपोलों पर मुक्ति-लक्ष्मी के पान का लाल-लाल रस लग गया था।
मादान-प्रदान