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अचिन्त्यचिन्तामणिमर्थसंपदा यशस्तरोः स्थानकमेकमक्षतम् । अशेषभूभृल्परिवारमातरं कृतज्ञता तामनिशं स्वमात्रय ।।२१।।
-धर्मार्माभ्युदय, सर्ग १८ धर्माविरोधेन नयस्व वृद्धि त्वमर्थकामी फलिदोषयुक्तः। युक्त्या त्रिवर्ग हि निषेवमाणो लोकद्वयं साधयति क्षितीशः ||३९|
-पप्रभ, सर्ग ४ सुखं फलं राज्यपदस्य जन्यते तदत्र कामेन स पार्थसाधनः । विमुच्य तो चेदिह धर्ममोहसे वृथव राज्यं वनमेव सेव्यताम् ||३१॥ इहार्थकामाभिनिनेशलालसः स्वधर्ममणि भिनत्ति यो नुपः । फलाभिलाण समीहते तरुं समूलमुस्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥३२॥
-धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग १८ माघ के शिशुपालवध का धर्मशर्माभ्युदय पर क्या प्रभाव है ? इसका विचार एक स्वतन्त्र स्तम्भ में करेंगे । यहाँ, हरिचन्द्र ने अपने उत्तरवर्ती कवियों पर क्या प्रभुता स्थापित की है इसके कुछ उदाहरण देखिए ।
सुत्रता रानी के मुखसौन्दर्य का वर्णन करते हुए हरिचन्द्र ने लिखा हैकपोलहेतोः खलु लोलचक्षुषो विधिय॑धात्पूर्णसुधाकरं द्विधा । विलोक्यतामस्य तथाहि लाग्छनच्छरलेन पश्चात्कृतसीवनवणम् ।।२-५०।।
-धर्मशर्माभ्युदय ऐसा लगता है मानो विधाता ने उस चपललोचना के कपोल बनाने के लिए पूर्ण चन्द्र के वो टुकड़े कर दिये हों। देखो न, इसीलिए वो उस चन्द्रमा में कलंक के बहाने पीछे से की हुई सिलाई के चिह्न विद्यमान है।
अब नैषधीयचरित में दमयन्ती के मुखसोन्दर्य का वर्णन करते हुए श्रीहर्ष की सूक्ति देखिए
हुप्तसारमिन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा । कृतमध्यविलं विलोक्यते धृतगम्भीरखनीखनीलिम ॥२-२५॥
-नषधीयचरित जान पड़ता है विधाता ने दमयन्ती का मुख बनाने के लिए चन्द्रमण्डल का सार निकाल लिया था, इसी लिए तो बीच में गड्डा हो जाने के कारण उसके मध्य याकाश की नीलिमा विखाई देती है।
गन्धर्वदत्ता के चरणयुगल की सुन्दरता का वर्णन करते हुए हरिचन्द्र की उक्ति देखिए---
सरोजयुग्मं बहुधा तपःस्थितं बभूव तस्याश्चरणद्वयं गुवम् । न चेत्कथं तत्र व हंसकाविौ समेत्य हृद्यं तनुतां फलस्वनम् ॥५१॥
-जीवन्धरचम्मू, लम्भ ३ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन