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इस पृथिवी के नीचे रत्नप्रभा, शराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नाम की सात पृथिवियाँ हैं जिनमें नारकी जीवों का निवास है। इन जीवों का समय निरन्तर दुखाय व्यतीत होता है। बिध्यान तथा हिंसा, असस्य, चौर्य, कुशील और परिग्रह में तीव्र आसक्ति रखनेवाले जीष इन नरकों में उत्पन्न होते हैं।
तिर्यच जीव अस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भेद से स्थावर जीष पांच प्रकार के है। ये सब एकेन्द्रिय होते है अर्थात् इनके मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है। श्रस जीव विकल और सकल के भेद से को प्रकार के हैं । द्वीन्त्रिय (शंख, कोड़ी, केंचुआ आदि), त्रीन्द्रिय ( चिंउटी, बिच्छू, खटमल आदि ) और चतुरिन्द्रिय ( मक्खी, मच्छर, बरी, भ्रमर आदि ) जीव विकल कहलाते है । सकल जीव पंचेन्द्रिय होते है अर्थात् उनके स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण ये पौष इन्द्रियाँ होती है । पंचेन्द्रिय तिर्यचों में कोई मनसहित और कोई मनरहित होते है । तियचों के दुख सबके सामने हैं । मायाचार-रूप प्रवृत्ति करने से तियंचों में जन्म लेना पड़ता है।
मनुष्य गति के जीव भोगभूमिज और कर्मभमिज के भेद से दो प्रकार के होते हैं। जहां कल्पवृक्षों से भीगोपभोग की प्राप्ति होती है ऐसे देव-कुरु, उत्तरकुरु धादि क्षेत्रों के निवासी भोगभूमिज कहलाते हैं। बहुत ही सुख शान्ति से इनका जीवन व्यतीत होला है । और जहाँ असि, मषी, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विशा इन उपायों से आजीविका चलती है ऐसे भरत, ऐरावत तथा विदेह क्षेत्र के निवासी मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं। कर्मभूमिज मनुष्य ही मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । भोग-भूमिज मनुष्य नियम से देवमति ही प्राप्त करते है।
देवगति के जीव भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के भेद से चार प्रकार के होते हैं । असुर कुमार, नागकुमार आदि के भेद से भवनवासी देव घस प्रकार के हैं। किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व शादि के भेद से ध्यन्सर देव आठ प्रकार के है। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र तथा तारों के भेद से ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के हैं और कल्पवासी तथा कल्पातीत के भेद से वैमानिक देव दो प्रकार के हैं। सोवर्म मादि सोलह स्वगों के निवासी देव कल्पनासी कहलाते हैं क्योंकि इनमें इन्द्र, सामानिक आदि भेदों की कल्पना होती है तथा सोलह स्वर्गों के ऊपर गंवेयक, अनुदिश तथा अनुत्तर विमानों में रहनेवाले देव कल्पातीत कहलाते हैं क्योंकि इनमें इन्द्र आदि भेदों की कल्पना नहीं होती । कल्पातीत देव एक समान होने से अमिन्द्र कहलाते हैं । देवगति के जीवों को यद्यपि मनुष्यों की अपेक्षा सांसारिक भोगों की सुलभता है पर वे उस पर्याय से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। उन्हें अपनी आयु पूर्ण होने पर नियम से मनुष्य या तियंचों में जन्म लेना पड़ता है।
___सिख जीवों का निवास लोक के अग्रभाग पर है। तपश्चर्या के द्वारा कर्मविकार
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन