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अयं स कामो नियतं भ्रमेण कमप्यधाक्षीद गिरिशस्तदानीम् । इत्यद्भुत रूपमबेदम जैन जनाधिनाथा: प्रतिपेदिरे तम ॥१७-६।।
-धर्मशर्माभ्युदय निश्चित हो वह कामदेव यही है, उस समय महादेव ने भ्रम से किसी दूसरे को भस्म कर दिया था। इस प्रकार धर्मनाथ जिनेन्द्र के रूप को देखकर उपस्थित राजाओं ने आश्चर्य प्राप्त किया था ।
उपर्युक्त दोनों ही सन्दर्भो में भावों का समानीकरण विखाई देता है।
स्वयंवर-सभा में मंचों पर बैठे हुए राजपुत्रों का वर्णन देखिए कितना एक दूसरे के अनुरूप है
स तत्र मञ्चेषु मनोज्ञवेषान् सिंहासनस्थानुपचारवत्सु ।
वैमानिकानां मरुतामपश्यदाकृष्टलीलानरलोकपालान् ॥६-१॥-रघुवंश साज-सामग्री से युक्त मंचों पर बैठे हुए मनोहर वेष से युक्त राजाओं को अब ने विमानों में बैठकर विहार करनेवाले देषों के समान देखा ।
शृङ्गारसारङ्गविहारलीलाशलेषु तेषु स्थितभूपतीनाम् । वैमानिकानां च मुदागतानां देवोऽन्तरं किंचन नोपलेभे ॥१७-४॥
-धर्मशर्माम्युदय देवाधिदेव भगवान धर्मनाथ ने शृंगाररूपी मगों के बिहार से युक्त क्रीड़ापर्वतों के समान उन मंचों के समूह पर स्थित राजाओं और आनन्द से समागत विमानचारी देवों के बीच कुछ भी अन्तर नहीं पाया था। राजकुमार अज मंच पर आरूढ़ हो रहे हैं, इसका वर्णन रघुवंश में देखिए--
वैदर्भनिर्दिष्टमसौ कुमारः दलप्तेन सोपानपथेन मञ्चम् ।
शिलाविभगराजशावस्तु नगोत्सङ्गमिवारोह ॥६-३||-रघुवंश वह अज, राजा भोज के द्वारा बताये हुए मंच पर निर्मित सोपान-मार्ग से ऐसा चढ़ गया जैसा कि सिंहशावक शिलाखण्डों से पर्वत के ऊंचे मध्यभाग पर जा पड़ता है। अम धर्मनाथ के मंच पर आरूढ़ होने का वर्णन धर्मशर्माभ्युदय में देखिए
अथाङ्गिना नेत्रसहस्रपात्रं निर्दिष्टमिष्टेन च मञ्चमुच्चः । सोपानमार्गेण समारोह हैमं मरुत्वा निव वैजयन्तम् ॥१७-७।।
-धर्मशर्माभ्युदय तदनन्तर मनुष्यों के हजारों नेत्रों के पात्र भगवान् धर्मनाथ किसी इष्टजन के द्वारा दिखलाये हुए सुवर्णमय उन्नत सिंहासन पर श्रेणी मार्ग से उस प्रकार आरूद हुए जिस प्रकार कि इन्द्र वैजयन्त नामक अपने भवन में आख्द होता है ।
___यहाँ भावसादृश्य होने पर भी दोनों कवियों की विपिछत्ति अपना-अपना स्थान पृथक रखती है।
भादान-प्रदान
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