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'प्रत्यासिन व्यतीतस्य नूनं सोत्यस्यास्ति भ्रान्तिरागामिनोऽपि ।
तत्तत्कालोपस्थितस्यैव हेतोबंधनात्यास्था संसृतौ को विदम्बः ।।१।।
जो सुख व्यतीत हो चुकता है वह लौटकर नहीं आता और यामामी सुख को केवल भ्रान्ति ही है अतः मात्र वर्तमान काल में उपस्थित सुख के लिए फोन चतुर मनुष्य संसार में आस्था आदर बुखि करेगा ?
घालं घायांसमानं दरिद्रं धीरं भीरु सज्जन दुर्जनं च ।
अश्नात्येक: कुष्णवत्व कक्षं सर्वग्रासी निर्विवेकः कृतान्तः ॥२९|| जिस प्रकार अग्नि समस्त वन को जला देती है उसी प्रकार सबको असने वाला यह विवेकहीन यम, बालक, वृद्ध, घनाम, दरिद्र, धीर, फायर, सज्जम और दुर्जन-सभी को ना कर देता है।
विसं गेहादङ्गमुच्चश्चित्ताग्नेविर्तन्ते वान्धवाश्च श्मशानात् ।
एक नानाजन्मवल्लीनिदानं कम द्वधा याति जीवेन सार्धम् ॥२२॥ घन घर से, शरीर ऊंची चिता की अग्नि से और भाई-बान्धव श्मशान से लोट जाते हैं, केवल नाना जन्मरूपी लताओं का कारण पुण्य पाप रूप द्विविध कर्म ही जीव के साथ जाता है।
छेत्तुं मूलात्कर्मपाशानशेषान्सद्यस्तीक्ष्णस्तद्यतिष्ये तपोभिः ।
को वा कारागाररुद्ध प्रबुद्धः शुद्धात्मानं वीक्ष्य कुर्यादुपेक्षाम् ।।२३।। इसलिए मैं तोष्ण तपश्चरणों के द्वारा कर्म रूपी समस्त पापों को जड़मूल से काटने का यत्न करूंगा। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो अपने शुद्ध आत्मा को कारागार में रुका हुआ देखकर भी उसकी उपेक्षा करेगा ?
ब्रह्म स्वर्ग से आये हए देवषियों-लोकान्तिक देवों ने भी भगवान की इस वराम्मपूर्ण विचार-सन्तति का समर्थन किया, अन्ततः सालवन में उन्होंने पंचमुट्टियों से केशलोंच कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। इस तरह हम देखते हैं कि धर्मशर्माम्युदय में अंगी रस के रूप में शान्त रस का उसम परिपाक हुआ है।
शान्त रस का एक सन्दर्भ चतुर्थ सर्ग ( ४-६०) में राजा दकारय के वैराग्यचिन्तन में आया है। वे चन्द्रग्रहण को देख संसार शरीर भोर भोगों से विरक्त हुए थे।
__ अंग रसों में श्रृंगाररस का परिपाफ भी धर्मशर्माम्युदय में उच्च-कोटि का हुआ है। जिस प्रकार वर्षा का पानी यत्र तत्र प्रवाहित होता हुआ अन्ततः समुद्र में एकत्रित होता है उसी प्रकार शृंगार रस भी पुष्पावचय, जलक्रीडा तथा पानगोष्ठी में प्रवाहित होता हुआ पन्द्रहवें सर्ग के सुरत-वर्णन में एकत्रित हुआ है। कवि ने यहाँ सम्भोग
१. दतोतमती तमेव तव सुबमामामिनि को विनिश्चयः ।
समुपैति वृधा अत श्रमं गुरुभस्तरक्षण-सौरबमोहितः १७०१-मन्द्रप्रभचरित, प्रथम सर्प
साहित्यिक सुषमा