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हा, रानी विजया दशकवन में रह रही है। क्षत्रचुडामणि के निर्माता षादीभ सिंह ने इसका वर्णन करते हुए कहा है कि जो रानी पहले शय्या पर पड़े फूल को कलियों से भी कराह उठती थी वह आज घास-फूस की शय्मा से ही सन्तुष्ट है, और तो क्या, अपने हाथ से काटा हुआ नीवार-जंगली धान्य ही उसका आहार है ।
माता का वात्सल्य से परिपूर्ण हृदय चाहता है कि वह अपने पुत्र को खिलापिलाकर आनन्द का अनुभव करे पर पुत्र का दर्शन ही कहाँ ? वह दण्डकवन की हरीभरी दुब के अंकुरों को उखाड़ कर तथा मुगशायकों को खिला-खिलाकर हृदय में यथाकथंचित् सन्तोप धारण करती है। आगे चलकर उसी दण्डकवन में जीवन्धर के साथियों से जब काष्ठांगार के द्वारा उस के प्राणदण्ड का अपूर्ण समाचार सुनती है तब उसका हृदय भर आता है, आँखों से सावन की सड़ी लग जाती है और दण्डकबन का तपोवन आकस्मिक करुण क्रन्दन से गूंज उयता है 1 पुत्र के प्रति माता की ममता को मानो कवि ने उद्देल कर रख दिया है। अन्त में पूर्ण समाचार सुनने पर उसका हृदय सन्तोष का अनुभव करता है। सखाओं द्वारा माता के जीवित रहने का समाचार प्राप्त कर जीवन्धर का हृदय भी गलत पवित्र पर काले त्रिः गौर हो जा है । वे सास, श्वसुर तथा श्वसुराल के सभी लोगों के रोकने पर भी सखाओं के साथ माता के पास द्रुतगलि से जाते हैं और माता के दर्शन कर गद्गद हो जाते हैं। यह प्रकरण जीवन्धरचम्पू का उदात्त अंश है। कवि ने इतनी कुशलता से इसका वर्णन किया है कि पाठक का हृदय आनन्द से विभोर हो जाता है।
जीवन्धरचम्पू का विप्रलम्भ शृंगार और प्रणय-पत्र दुन्ति हाथी के उपद्रव से रक्षा करते समय जीवन्धर ने गुणमाला को देखा और गुणमाला ने जीवघर को, यह अप्रत्याशित दर्शन दोनों के अनुराग का कारण बन गया । गुणमाला साक्षात् कामदेव के समान सुन्दर जीवघर को देख काम से आतुर होती हुई घर गयो, सन्ताप से उसका मुख सूखने लगा, मन में जीवन्धर का ध्यान करती हुई वह चुप हो रही है, सखियों के पूछने पर भी कुछ नहीं बोलती । यह कामदेव को उपालम्भ देती हुई कहती है, 'हे कुसुमायुध ! तुम्हारे पांच बाण निश्चित है और बेधने योग्य लक्ष्य अनेक है फिर क्या बात है कि तुमने अपने समस्त बाण मुझ एक पर ही चला दिये ?' अनेक शीललोगचार करने पर भी जब उसे शान्ति न हुई तब उसने एक पत्र लिखकर क्रीडाशुक के द्वारा जीवन्धर के पास भेजा । पत्र में लिखा था
मदीवहृदयाभि मदनकाण्डकाण्डोद्मतं
नवं कुसुमकन्दुकं बनतटे पया चोरितम् । विमोहकलितोत्पलं रुधिररागसरपल्लवं
तदद्य हि वितीर्यतां विजिसकामरूपोज्ज्वल ||३३॥–लभ ४
साहित्यिक सुषमा
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