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उठी और उसके पास पहुँचकर उसने उसे स्वस्थ कर दिया। बानरी को प्रसन्न देश बानर ने एक पनस फल तोड़कर उसे उपहार में दिया, परन्तु अकस्मात् वनपाल ने आकर बानरी के हाथ से वह पनस फल छीन लिया । यह सब दृश्य जीवन्धर स्वामी अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष देख रहे थे । उनका दयालु हृदय वनपाल के इस कार्य को देखकर व्यन्न हो उठा । इसी आलन विभाव ने जीवन्धर स्वामी के हृदय में शान्तरस को उत्पन्न कर दिया । उनके मन में यह विचार तरंगित होने लगा
काष्ठा
की राज्यमेतत्।
मद्यते वनपालोऽयं त्माज्यं राज्यमिदं मया ॥२२॥ पृ. २२४
और यह बनपाल
यह वानर काष्ठागार के समान, यह राज्य फल के समान मेरे समान आचरण कर रहा है अर्थात् जिस प्रकार वानर के द्वारा दिये हुए फल को वनपाल ने छीन लिया है उसी प्रकार मैंने इस राज्य को छीन लिया है अतः यह राज्य मेरे द्वारा त्याज्य है ।
शान्तरस के अनुभाव रूप में कवि ने जीवन्वर स्वामी की जिस वैराग्यतरंगिणी को प्रवाहित किया है उसमें अवगाहन कर शान्तिसुधा का अनुभव किया जा सकता है । वे लिखते हैं
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या राज्यलक्ष्मी बहुदुःखसाच्या दुःखेन पाल्या चपला दुरन्ता । नष्टापि दुःखानि चिरायते तस्यां कदा वा सुखलेशलेशः ॥ २३ ॥ कल्लोलिनीनां निकरैरिवान्धिः कृपीटयोनिर्बलेन्धनैव 1 कामं न संतृप्यति कामभोगः कन्दर्पवश्यः पुरुषः कदाचित् ||२४|| राज्य स्नेहविहीनदीपकलिकाकल्पं चलं जीवितं
शम्पावत्क्षणभङ्गुरा तनुरियं लोलानतुल्यं वयः । तस्मात्संसृतिसन्ततो न हि सुखं तत्रापि मूढः पुमा
नादत्ते स्वहितं करोति च पुनर्मोहाय कार्य वृथा ॥२५॥ विलोभ्यमानो विषयैर्वराको भङ्गुरैर्भूशम् । नारम्भदोषान्मनुते मोहेन बहुदुःखदान् ॥ २६ ॥ ममेयं मुङ्गी मम तनय एष प्रचुरधी
रिमे मे पूर्वा इति विगतबुद्धिर्नरपशुः । अणुप्ररूये सौख्ये विहित रुचिरारम्भवगः
प्रयाति प्रायेण क्षितिधरनिभं दुःखमधिकम् ॥ २७॥ ये मोक्षलक्ष्मीमनपायरूपां विहाय विन्दन्ति नृपाललक्ष्मीम् । निदाघकाले शिशिराम्बुधारा हित्वा भजन्ते मृगतृष्णिकां ले ||२८|| तस्मात्वलेशचयारलब्ध्वा मानुषं जन्म दुर्लभम् । प्रमादः स्वहिते कर्तुं न युक्त इह धीमता ॥ २९ ॥
पृ. २२४-२२५
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन