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यह तो रूठी स्त्री को प्रसम्न करने के लिए पुरुष को विरह-चेष्टा का वर्णन है, अब कुछ रूठे हुए पुरुष को मनाने के लिए स्त्री की विरह-चेष्टा का भी वर्णन देखिए कवि ने कितना मार्मिक चित्रण किया है
हे सगर्व ! दूसरे की बात जाने दो, जब तुम नाथ होकर भी अपना स्नेह-पूर्ण भाव छिपाने लगे तब मेरी उस सखी को निश्चित ही अनाथ-सा समझ वह मेष, शत्रु की तरह विष ( पक्ष में जल) देता हुआ मार रहा है और विजलियां जला रही है।
पति के अभाव में असह्य सन्ताप से पीड़ित रहनेवाली इस सखी ने सरोवरों के जल में प्रवेश कर उसके कीड़ों को जो अपने शरीर से सन्तापित किया है क्या यह पाप उसके पति को न होगा?
इस पावस के समय सरोवर अपने आप कमल-रहित हो गया है और वन को उसने पल्लवरहित कर दिया है। यदि चुपचाप पड़ी रहनेवाली उस सखी के मरने से हो तुम्हें सुख होता है तो कोई बात नहीं परन्तु वन पर भी तो तुम्हें दया नहीं है।
हे सुभग ! न वह क्रीडा करती है, न हंसती है, न बोलती है, न सोती है,न खाती है, और न कुछ जानती ही है ! वह तो मात्र नेत्र बन्द कर रतिरूप श्रेष्ठगुणों को धारण करनेवाले एक तुम्हारा ही स्मरण करती रहती है।
इस प्रकार किसी दयावती स्त्री ने जब प्रेमपूर्वक किसी युवा से कहा तब उसका काम उत्तेजित हो उठा । अब वह जैसा आनन्द धारण कर रहा था वैसा सौन्दर्य का अहंकार नहीं।
हास्य रस के भी एक दो प्रसंग देखिए
जिन-बालक को लेकर देवसेना सुमेरपर्वत पर जा रही है। मार्ग में सूर्य बिम्ब को देखकर ऐरावत हाथी श्रम में पड़ गया। उसकी चेष्टा देख सब हंसने लगे। श्लोक यह है--
रक्ततोरपलं हरितपत्रविलम्बितीरे
त्रिलोततः स्फुटमिति त्रिदशद्विपेन्दः । बिम्ब विकृष्य सहसा तपनस्य मुश्चन्
धुन्वन्करं दिवि चकार न कस्प हास्यम् ॥४४॥ -सर्ग ६ आकाशगंगा के किनारे हरे रंग के पसे पर यह लाल कमल फूला हुआ है यह समझकर ऐरावत हाथी ने पहले तो बिना विघारे सूर्य का बिम्छ खींच लिया पर जब उष्ण लगा तब जल्दी से छोड़कर सूंड़ को फड़फड़ाने लगा। यह देख आकाश में किसे हँसी न आ गयी थी ?
१. सर्ग ११, श्लोक २६ से १३ तक स्वयि विभावपि भाभिधायिनि...............|३||
......मदममन्दमनन्थरमम्मथः ||
साहित्यिक सुषमा