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होता है। अतः वे स्वय पात रस को अंगीकृत करते है और दूसरों के लिए भी उसी का उपदेश देवे हैं।
भगवान् धर्मनाथ एक बार स्फटिक निर्मित भवन की छत पर बैठे थे। चन्द्रमा की उज्वल चांदनी सब ओर फैल रही थी। उस चाँदनी में स्फटिक निर्मित भवन अदृश्य सा हो गया पा इसलिए भगवान की गोठी आकाश में स्थित इन्द्र की सभा के समान जान पढ़ती थी। उसी समय तारामण्डल से इल्कापात हुआ। एक रेखाकार ज्योति तारामण्डल से निकल कर आकाश में ही विलोम हो गयी। उसे देख, भगवान् के मन में यह विचार हिलोरें लेने लगा कि जिस प्रकार यह उल्का देखते-देखते नष्ट हो गयी उसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थ नष्ट हो जाने वाले है। न मैं रहूँगा और न मेरा यह राज्य परिवार रहेगा इसलिए समय रहते सचेत होकर आत्मकल्याण करना पाहिए । भगवान के हृदय में उमड़ने वाले इस वैराग्य का वर्णन कवि ने धर्मशर्माभ्युदय के बीसवें सर्ग के ९-२३ इलोकों में बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। उस सन्दर्भ के कुछ श्लोक देखिए
तामालोक्याकाशदेशानुदश्चज्ज्योतिलिादीपिताशां पतन्तीम् । इत्थं चित्ते प्राप्तनिवेदखेदो मीलचक्षुश्चिन्तयामास देवः ।।९।।
आकाश से पड़ती तथा निकलती हुई किरणों को ज्वालाओं से दिशाओं को प्रकाशित करती, उस उस्का को देख जिन्हें चित्त में बहुत ही निर्वेद और खेद उत्पन्न हुआ है ऐसे धर्मनाथ स्वामी नेत्र बन्द कर इस प्रकार चिन्तवन करने लगे।
देवः कश्चिज्ज्योतिषां मध्यवर्ती दुर्ग तिष्ठन्निस्यमेषोऽन्तरिक्षे ।
यातो देवादीशी चेदवस्था कः स्याल्लोके निळपायस्तदन्यः ।।१०॥
जब ज्योतिषी देवों का मध्यवर्ती तथा आकाश-रूपी दुर्ग में निरन्तर रहनेवाला यह कोई देव, दैववश इस अवस्था को प्राप्त हुआ है तब संसार में दूसरा कोन विनाशहीन हो सकता है ?
यससक्त प्राणिनां क्षीरनोरन्पायनोच्चरङ्गमप्यन्तरङ्गम् ।
आयुश्छेदे याति चेत्तत्तदास्था का बाह्येषु स्त्रीतनूजादिकेषु ।।१२।
प्राणियों का जो शरीर क्षीरनीरन्याय से मिलकर अत्यन्त अन्तरंग हो रहा है वह भी जब आयु कर्म का छेद होने से पला जाता है तब अत्यन्त बाह्म स्त्री-पुत्रादिक में मा आस्था है ?
विमूत्रादेर्धाभ मध्यं वधूनां तनिष्यन्दद्वारमेवेन्द्रियाणि ।
प्रोणीबिम्ब स्थूलमांसास्पिकूटं कामान्धानां प्रीसये षिक् तथापि ॥१७॥ स्त्रियों का मध्यभाग मल मूत्र आदि का स्थान है, उनकी इन्द्रियाँ मल-मूत्राणि के निकलने का द्वार है और उनका नितम्ब-बिम्ज स्यूल मांस तथा हड्डियों का समूह है फिर भी घिरकार है कि वह कामान्ध मनुष्यों की प्रीति के लिए होता है ।
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन