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रीति रसों के अनुसार इस ग्रन्थ में वैदर्भी, लाटी, पांचाली और गौड़ी इन चारों रीतियों का अच्छा प्रयोग हुआ है।
इस तरह जीवन्धरचम्पू को काव्य-कला साहित्यिक क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी गयी है।
जीवन्धर चम्पू का उत्प्रेक्षालोक उत्प्रेक्षालंकार से कवि की कवित्व-शक्ति का अनुमान लगाया जाता है। मात्र इतिवृत्त लिख देने से कवि का कर्तव्य पूरा नहीं होता क्योंकि वह तो इतिहास आदि से भी सिद्ध है। कवि का कर्तव्य विच्छित्तिपूर्ण उक्तियों से ही पूर्ण होता है । विच्छित्ति के प्रकट करने में उत्प्रेक्षा का सर्वप्रथम स्थान है 1 देखिए जीवन्धरचम्पू का सन्दर्भ
'चन्द्रमा अस्तोन्मुख है और प्रातःकाल की मन्द-मन्द वासु चल रही है इस समय विजयारानी ने तीन स्वप्न देने 1'
इस अल्पतम सन्दर्भ में कजिनाएं किनारा 'अथ कदाचिश्यसनायां निशाय--वहति प्राभातिके मा मते-पृ. १७-१८ भाव यह है
किसी समय जब रात्रि समाप्त होने को आयी सब चन्द्रमा पश्चिम दिशा की ओर हल गया। बह चन्द्रमा ऐसा जान पड़ता था मानो पश्चिम दिशा रूपी स्त्री की काजल से सुशोभित पाँदी को डिबिया ही हो, अथवा सूर्य कहीं देख न ले, इस कारण भय से भागती हुई रात्रिरूपी पुंश्वली स्त्री का गिरा हुआ मानो कर्णाभरण हो हो, अथवा आकाशरूपी हाधी के गण्डस्थल से निकले हुए मोतियों के रखने का मानो पात्र ही हो, अथवा पश्चिम समुद्र से जल भरने के लिए रात्रिरूपी स्त्री के द्वारा अपने हाथ में लिया हुआ स्फटिक का घड़ा ही हो, अथवा पश्चिम दिशा सम्बन्धी दिग्गज के शुण्डादण्ड से गिरा हुआ मानो कीचड़सहित मृणाल ही हो, अथवा कामदेव के बाणों को तीक्षण करनेवाला मानो शाण का पाषाण ही हो, अपवा पश्चिम दिशारूपी स्त्री की मानो फूलों से बनी हुई गेंद ही हो, अथवा अस्तापलरूपी हाथी के गण्डस्थल पर रखा हुआ मानो कामदेव का वज़मय ताल ही हो ।
वह पन्द्रमा पश्चिम की ओर ढलकर अस्ताचल के शिखर पर आरूढ़ हो गया था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो वोरजिनेन्द्र की क्रोधाग्नि से जिसका शरीर जल गया है ऐसे कामदेव को कलंक के बहाने अपनी गोद में रखकर उसे जीवित करने की इच्छा से संजीवन औषध ही खोज रहा हो और आकाशरूपी बन में खोजने के बाद अब उसी उद्देश्य से अस्ताचल के शिखर पर आरूढ़ हुमा हो।।
उस समय तारागण भी विरल-विरल रह गये थे और सन्ध्या के कारण लालिमा को प्राप्त हुए अन्धकाररूपी कुंकुम के द्रव से चिह्नित आकाशरूपी पलंग पर रात्रि तथा ६४
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकम