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चित्रालंकार को सुषमा धर्मशर्माम्युदय के १९३ सर्ग में व्याप्त है
एकाक्षर, यक्षर, चतुरक्षर, गूढचतुर्थपाद, समुद्गक, निरोप, अतालव्य, प्रतिलोमानुलोम पाद, गोमूत्रिकाबन्ध, मुरजबन्ध, चक्रबम्ध, अभ्रम, षोडशदलकमलबन्ध आदि चित्र काव्यों से कवि की प्रतिमा का अनुमान लगाया जा सकता है। वस्तुतः शब्दालंकार की रचना करना अर्थालंकार की रचना की अपेक्षा कष्टसाध्य है। इस अलंकार को रचना में विरले ही कवि सफल हो पाते हैं । कालिदास ने चित्रालंकार को छुआ भी नहीं है। जबकि महाकबि हरिचन्द्र ने अपनी एतद्विषयक कुशलता सम्पूर्ण सर्ग में प्रदर्शित की है। इस सर्ग में न केवल शब्दालंकार-चित्रालंकार है किन्तु श्लेषालंकार भी चरम सीमा पर पहुंचा हुआ दिखाई देता है। जिस प्रकार शिशुपालवध में शिशुपाल का दूत, श्रीकृष्ण की सभा में जाकर अथक इलोकों के द्वारा स्तुति और निन्दा का पक्ष प्रस्तुत करता है उसी प्रकार धर्मशर्माभ्युदय के इस उन्नीसवें सर्ग में भी अंगादि देशों के राजकुमारों के द्वारा सुषेण सेनापति के पास भेजा हुआ दूत भी दूपर्थक लोकों के द्वारा निन्दा और स्तुति के पक्ष को रखता है। यह क्रम बारहवें श्लोक से लेकर बत्तीसवें श्लोक तक चला है । उदाहरण के लिए एक-दो फ्लोक उद्धृत कर रहा हूँ--
परमस्नेहनिष्ठास्ते परदानकृतोयमाः ।
समुन्नति तवेच्छन्ति प्रधनेन महापदाम् ॥१९-१८११ ___ अत्यधिक स्नेह रखनेवाले एवं उत्कृष्ट दान करने में उद्यमशील वे सब राजा प्रकृष्ट धन के द्वारा महान् पद-स्थान से युक्त आपकी उन्नति चाहते है अर्थात् आपको बहुत भारी धन देकर उत्कृष्ट पद प्रदान करेंगे ( पक्ष में वे सब रामा आपके साथ अत्यन्त अस्नेह-अप्रीति रखते हैं और पर- शत्रु को खण्ड-खण्ड करने में सदा उद्यमी रहते हैं अतः युद्ध के द्वारा आपको हर्षाभाव से युक्त-मुदो हर्षस्य सतिन्नतिस्तया महिता तो समुन्नतिम्-महापदा-महती आपत्ति की प्राप्ति हो ऐसी इच्छा रखते हैं )।
सहसा सह सारेभैर्धाविताधाविता रणे ।। दुःसहेज्दुः सहेऽल ये कस्य नाकस्य नार्जनम् ॥२१॥ तेषां परमतोषेण संपदातिरसं गतः ।
स्वोन्नति पतितां बिभ्रत्सद्महीनो भविष्यसि ।।२२।। (युग्म) सर्ग १९ सारभूत श्रेष्ठ हाथियों से राहित जो, मानसिक व्यथा से रहित दुःसह-कठिन युद्ध में पहुंचकर किसके लिए मनायास ही स्वर्गप्रदान नहीं करा देते हैं अर्थात् सभी को स्वर्ग प्रदान करा देते हैं उन राजाओं के परम सन्तोष से तुम सम्पत्ति के द्वारा अधिक राग को प्राप्त होओगे तथा अपनी उन्नति से सहित स्वामित्व को धारण करते हुए शीघ्न ही श्रेष्ठ पृथिवी के इन-स्वामी हो जाओगे । (पक्ष में सारभूत श्रेष्ठ हाथियों से सहित हुए जो राजा मानसिक व्यथाओं से परिपूर्ण कठिन युद्ध में किसके लिए दुख का संचय प्रदान नहीं करते अर्थात् सभी के लिए प्रदान करते हैं, उन राजाओं को यदि तुमने अत्यन्त असन्तुष्ट रखा तो तुम्हें उनका पदाति-सेवक बनना पड़ेगा, असंगत-अपने
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन