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नबो धनी यो मदनायको भवेन बोपनीयो मदनाय को भवे । स सुश्रुषामत्र तु नेत्रविक्रमविबोध्यते सत्तिलकोऽपि कानने ॥१०.३९|| कृतार्थीकृत हितं त्या हितल्वारसदानं सदा नन्दिनं वादिनं वा । विभालम्बिभालं सुधर्मा सुधर्मापितख्यापितख्याति सा नौति सानी ॥१०.५१॥ कलविराजिपिराजितकानने नवरसालरसालराषट्पदः । सुरभिकेसरकेसरशोभितः प्रविससार स सारबलो मधुः ॥१७॥ प्रभावितानेकलतागताया प्रभाविताने कलता गता या 1 प्रभावितानेकलतागलाया सा स्त्री मघौ कि स्पृहणीयपुण्या ॥६६॥
कालिदास ने रघुवंश के नवम सर्ग में चतुर्थपाद-सम्बन्धी समक के साथ द्रुतविलम्बित छन्द का अवतार कर काव्यसुधा की जो मन्दाकिनी प्रवाहित की है उसका अनुसरण माघ के षष्ठ सर्ग तथा धर्मशर्माम्युदय के एकादश सर्ग-सम्बन्धी ऋतु-वर्णन में भी किया गया है। जिस प्रकार नाक पर पहने हुए मोती से किसी शुभ्रवदना का पर कमल खिल उदता में नमी म मायापी दो पदों के यमक से द्रुतविलम्बित छन्द खिल उठा है। शब्द-श्लेष का चमत्कार देखिए
कान्तारतरबो नेते कामोन्मादकृतः परम् ।
अभवन्नः प्रीतये सोऽप्युद्यन्मधुपराशयः ॥३-२३॥ यहाँ एकवचन और बहुवचन का श्लेष कवि के कौशल को प्रकट करता है तो
उल्लसत्केसरो रक्तपलाशः कुञ्जराजितः ।।
कठोरत्र इशारामः कं न व्याकुलयत्यसो ।।३-२५।। यहाँ सभंग श्लेष कवि की काव्यप्रतिभा को सूचित करता है।
अधिश्रियं नीरदमानयन्ती नवान्नुबन्तीमतिनिष्कलाभान् ।
स्वनर्भुजङ्गान् शिखिनां दधानं प्रगल्भवेश्यामिव चन्दनालीम् ।।७-३३।। वह पर्वत चन्दन वृक्षों की जिस पंक्ति को धारण कर रहा था वह ठीक प्रौढ़ वेश्या के समान जान पड़ती थी। क्योंकि जिस प्रकार प्रौढ वेश्या अधिश्रियं-अधिक सम्पत्तिवाले पुरुष का, भले हो वह नीरद-दन्तरहित-वृद्ध क्यों न हो आश्रय फरती है उसी प्रकार वह चन्दन वृक्षों की पंक्ति भी अधिश्रियं-अतिशय शोभासम्पन्न नीरद-मेघ का आश्रय करती थी अत्यन्त ऊँची थी और जिस प्रकार प्रौढ़ वेश्या अतिनिष्कलाभान---जिनसे धनलाभ की आशा नहीं है ऐसे नवीन भुजङ्गान्-प्रेमियों को शिखिनाम्शिखण्डियों-हिजलों के शब्दों द्वारा दूर कर देती है उसी प्रकार यह चन्दन वृक्षों की पंक्ति अति निकलाभान्-अतिशय कृष्ण नन्नीनभुजङ्गान--सों को शिखिनाम् -मयूरों के शब्दों द्वारा दुर कर रही थी।
यहाँ प्रत्येक पद का श्लेष पाठक के मन को आनन्द-विभोर कर देता है।
साहित्यिक सुषमा