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स्वर्णानिङ्गाग्रमधिष्ठितोऽपि काको वराकः खल काक एव ।।३०॥ सर्ग १
यहाँ द्वितीय काक शब्द 'नयने तस्यैव नयने' अथवा 'करभः करम:' के समान अर्थान्तरसंक्रमित हो गया है जिससे वह माष काक अर्थ का वाचक न रहकर नीच का वाचक हो गया है।
अनेकपद्माप्सरसः समन्ताधस्मितसंख्यातहिरण्यगर्भाः।
अनन्तपीताम्बरधामरम्या ग्रामा जयन्ति त्रिदिवप्रदेशान् ।।४४॥ सर्ग १ यहाँ स्वर्ग में एक पचा नाम की अप्सरा है जबकि ग्रामों में अनेक हैं, स्वर्ग में एक हिरण्यगर्भ-ब्रह्मा है जबकि गांवों में अनेक हैं, और स्वर्ग एक ही पीताम्बर के धाम से रमणीय है जबकि ग्राम अनेक पीताम्बरों के धाम से रमणीय है। इस प्रकार श्लेषोपमा से व्यतिरेकालंकार व्यंग्य है ।
'हावली बीजयतीव मित्रम् ॥७७॥ यहाँ 'हावली प्रेमसंभृतनायिकेव' इस तरह उपमालंकार व्यंग्य है ।
कुलेऽपि कि तात तवेदृशी स्थितियंदात्मना श्रीन सभास्वपि त्यजेत् । 'तदङ्कलीलामिति कीतिरीय॑या ययाधुपालन्धुभिवास्य बारिधिम् ।।५।। सर्ग २
यहाँ 'तवापि मर्यादाशालिनः कुले किम् ईदृशी स्थितिः'-अन्य कुल में ऐसी विडम्बनापूर्ण रीति भले ही हो पर आप तो मर्यादाशाली हैं, आपके कुल में भी ऐसी विडम्बना है, यह 'अपि' शब्द के द्वारा घोत्रित होता है। इसी प्रकार 'सभास्वपि' किसी अल्पजन-सम्पर्क के स्थान में भले ही सम्भव हो परन्तु सभा में और एक सभा में नहीं किन्तु कई सभाओं में ऐसी विवम्बना श्री करती है यह बहुवचनान्त प्रयोग से घोवित्त होता है।
निपीतमातङ्गघटाग्रशोणिता हठावगूढा सुरताथिभिभंटः ।
किल प्रतापानलमासदत्समिसमृद्धमस्यासिलताश्मयुद्धये ॥१५|| सर्ग २ यहाँ विशेषणों की समानता से 'असिलता' में स्त्री की उपमा सिद्ध है।
परिष्वजति चन्दनावलिरियं भुजङ्गान्यत
स्ततोऽतिगहनं स्त्रियश्चरितमात्र वन्दामहे ॥३५॥ सर्ग १० यहाँ 'चन्दनाबलि' में किसी कुलटा का सादृश्य व्यंग्य है।
अहमिह गुरुलज्जया हतोऽस्मि भ्रमर विवेकनिधिस्त्वमेक एव । मुखमनु सुमुखी करी धुनाना यदुपजनं भक्ता मुद्द्वश्चुचुम्बे ॥३९॥ सर्ग १३
यहाँ
चलापानां दृष्टि स्पृशसि पहुशो वेपथुमती
रहस्याख्यायीय स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः । कर ध्याधुन्वन्त्याः पिबसि रतिसर्वस्वमवरं वर्य तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ।।
--अभिज्ञान शाकुन्तल
साहित्यिक सुषमा