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के सा .' इति, ग पुनः दुगकार गर तरन हद प्रकृति के प्रयोग से तथा 'एव' और 'मुहः' इन अव्यय तथा निपातों से विशेष चमत्कार प्रकट किया गया है।
जीवन्धरणम्पू की काव्यकला जीवन्धरचम्पू में कवि ने वर्ण्य विषयों की कलात्मक सज्जा प्रस्तुत की है । कवि, स्त्री-पुरुषों के नख-शिख का वर्णन करता हुआ जहां उनके वाह्य सौन्दर्य का वर्णन करता है वहाँ उनकी अभ्यन्तर पवित्रता का भी वर्णन करता है। 'राजा सत्यधर का पतन उनकी विषयासक्ति का परिणाम है' यह बतलाकर भी कवि उनको श्रद्धा और धार्मिकता के विवेक को अन्त तक जागृत रखता है। युद्ध के प्रांगण में भी वह सहलेखनासमाधिमरण धारण कर स्वर्ग प्रास करता है।
____ जीवन्धरचम्पू, गद्यपद्यात्मक रचना है । बाण' ने श्रीहर्षचरित में आदर्श गद्य के जिन गुणों का वर्णन किया है वे नवीन अर्थ, ग्राम्य जाति, स्पष्टश्लेष, स्फुट रस और अक्षरों की बिकटबन्यता, सबके सब जीवन्धरचम्म के गद्य में अवतीर्ण हैं। इसके पश्च भी कोमलकान्तपदावली, नयी-नयी कल्पनाओं और मनोहर अर्थ से समुद्भासित है । इसके गद्य और पद्य-दोनों ही श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, परिसंख्या, विरोधाभास तथा भ्रान्तिमान आदि अलंकारों से अलंकृत हैं। प्रारम्भ में ही श्लेषानुप्राणित रूपकालंकार को छटा द्रष्टव्य है।
श्रीपादाक्रान्तलोकः परमहिमकरोऽनन्तमोत्यप्रबोध
__ स्तापघ्यान्तापनोदप्रचितमिजरुचिः सत्समूहाधिनाथः । श्रीमान्दिव्यध्वनिप्रोल्लसदखिलकलाबल्लभो मन्मनीपा
नीलान्जिन्या विकास बितरतु जिनपो धीरचन्द्रप्रभेशः ।।२।। जिन्होंने अपने शोभासम्पन्न चरणों के द्वारा समस्त जगत् को आक्रान्त किया है, { पक्ष में जिसकी शोभायमान किरणें समस्त जगत् में व्याप्त है), जो श्रेष्ठ महिमा को करनेवाले हैं, ( पक्ष में अतिशय शीतलता को करनेवाले हैं ), जिन्हें अनन्तसुख और अनन्तज्ञान प्राप्त हुआ है, ( पक्ष में जिससे जीवों को अपरिमित सुख का बोध होता है ) जिनकी कान्ति अथवा श्रद्धा संताप और अज्ञानान्धकार को नष्ट करने में प्रसिद्ध है, ( पक्ष में जिसकी निज की काम्ति गरमी और अन्धकार दोनों को नष्ट करने में प्रसिद्ध है), जो अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी से सहित है, ( पक्ष में अनुपम शोभा से सम्पन्न हैं) और जो दीव्यध्यान से सुशोभित होनेवाली समस्त कलाओं के स्वामी हैं, ( पक्ष में जो आकाशमार्ग में सुशोभित होनेवाली समस्त कलाओं से प्रिय है ) ऐसे धीरवीर चन्द्रप्रभ-जिनेन्द्र-रूपी चन्द्रमा हमारी बुद्धिरूपी नीलकमलिनी का विकास करें।
१, नवोऽयों जातिराम्या श्लेषः स्पष्टः स्फुटो रसः । विकटाशरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुर्लभम् ॥ हर्षचरित)
महाकषि हरिचम्न : एक मनुशीलन