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हेलोतरतुलमतङ्गजावलोकपोलपालीगलितमदाम्बुभिः । गङ्गाजलं कजलमजुलीकृतं कलिन्दकन्योरफविभ्रमं दो ॥९-७५।। अनिन्द्यदन्तद्युतिफेनिलाघरप्रवालशालिन्यु रुलोचनोत्पले ।
तदास्यलावण्यसुधोदधौ बमुस्तरङ्गभङ्गा इव भङ्गुरालकाः ॥२-५९।। धर्मशर्माभ्युदय में ध्वनि का विस्तार ।
काव्य में ध्वनि को बहुत भारी महिमा है। ध्वन्यालोककार ने 'काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुर: माम्नात दारा ध्वनि को भाग्य की आत्मा माना है। मम्मट तथा विश्वनाथ कविराज आदि ने ध्वनि को उत्तम काव्य माना है। जहां व्यंग्य अर्थ, वाच्य को अपेक्षा अधिक चमत्कारी होता है वही ध्वनि मानी जाती है, फलतः ध्वनि के लक्षणामलक और अभिधामलक के भेद से दो भेद माने जाते है। लक्षणामूलक को अविधक्षितमाच्य और अभिधामूलक को विवक्षितान्यपरवाच्य कहा गया है। अविवक्षितबाच्य को अर्थान्तरसंक्रमित और अत्यन्ततिरस्कृत के भेद से दो प्रकार का माना गया है। विवक्षितान्यपरवाच्य के असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य और संलक्ष्मक्रमव्यंग्य की अपेक्षा दो भेद माने गये हैं। असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य रसभावादिरूप होता है तथा गणना में उसका एक ही भेद लिया जाता है। संलक्ष्यक्रमभ्यंग्य के शब्दशक्तिसमुत्पन्न, अर्थशक्तिसमुत्पन्न और उभयशक्तिसमत्पन्न के भेद से तीन भेद कहे गये हैं। शब्दशक्तिसमुत्पन्न के वस्तु और अलंकार को अपेक्षा दो भेद हैं। अर्थशक्त्युभव स्वनि के स्वतःसम्भवी वस्तु और अलंकार, कविप्रोढोक्तिसिद्धवस्तु और अलंकार तथा कविनिबद्धवक्तृप्रौढोकिसिद्ध वस्तु और अलंकार इस प्रकार ६ और इन छह से प्रकट होनेवाली वस्तु और अलंकार व्यंग्य की अपेक्षा १२ भेद होते हैं । उभयशक्ति समुत्पन्न का एक ही भेद होता है। इस लरह संक्षेप से ध्वनि के अठारह भेद होते हैं। धर्मयार्माभ्युदय में ध्वनि के ये भेद यत्र-तत्र प्रस्फुटित हुए हैं । जैसे
अहो खलस्थापि महोपयोगः स्नेहद हो यत्परिशीलनेन ।
बाकर्णमापूरितपात्रमेताः क्षीरं क्षरन्त्यक्षतमेव गावः ॥२६॥ सर्ग १ --बड़े गाश्चर्य की बात है कि स्नेहहीन खल का-दुर्जन का भी बड़ा उपयोग होता है क्योंकि उसके संसर्ग से यह रचनाएं बिना किसी तोड़ के पूर्ण आनन्द प्रदान करती है। यहां खल, स्नेह तथा गो शब्द के श्लेष रूप होने से दूसरा अप्रवृत्त अर्थ यह प्रकट होता है
-कैसा आश्चर्य है कि तैलरहित खली का भी बड़ा उपयोग होता है क्योंकि उसके खिलाने से यह गायें बिना किसी आधात के बरतन मर-भरकर दूध देती है।
यहाँ 'गावो गाव इव' कवियों की वाणी गायों के समान है, 'खल: खल इव' दुर्जन खल के समान है, 'स्नेहः स्नेह इच' प्रेम तल के समान है तथा 'क्षीरं स्वान्तःसुखभिव' स्वान्तःसुख दूध के समान है इस प्रकार उपमालंकार व्यंग्य है ।
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन