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अङ्गरागमिय कापि सुभ्रवः साध्यसंपविव निर्ममे विवः । यामिनीव शुचिराषिो पा चारुचामरमचालयाचरम् ।।४९||
-सर्ग ५ -जिस प्रकार सन्ध्या आकाश में लालिमा उत्पन्न करती है उसी प्रकार किसी देवी ने माता के शरीर में अंगराग लगाकर लालिमा उत्पन्न कर दी और जिस प्रकार रात्रि चन्द्रमा को चलाती है उसी प्रकार कोई देवी चिरकाल तक सुन्दर चंवर पलाती रही। स्वयंवर-वर्णन में कन्या के प्रति सुभद्रा की सम्बोधनोति देखिए
कोलकैलालवलीलवङ्गरम्येषु बेलाद्रिवनेषु सिन्धोः ।
कुरु स्पृहा नागरखण्डवल्लीलीलावलम्बिक्रमुकेषु रन्तुम् ||६२।। सर्ग १७
-हे तन्वि ! तू कबाकचीनी, इलायची, लवली और लौंग के वृक्षों से रमणीय, समद् के तटवर्ती पर्वतों के उन वनों में क्रीड़ा करने की इच्छा कर जिनमें सुपारी के वृक्ष ताम्बूल की लताओं से लीलापूर्वक अवलम्बित है-लिपटे हुए हैं।
धर्मशर्माभ्युदय का काव्य-वैभव पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के प्राचीन-प्राचीनतर लक्षणों का समन्वय करते हुए अपने 'रसगंगाधर' में. उसका लक्षण लिया है.---'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काश्यम्'-रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करनेवाला शब्द-समूह कान्य है । वह रमणीयता चाहे अलंकार से प्रकट हो, चाहे अभिधा, लक्षणा या व्यंजना से । मात्र सुन्दर दाब्दों से या मात्र सुन्दर अर्थ से काव्य, कान्य नहीं कहलाता, किन्तु दोनों के संयोग से ही काम्य कहलाता है। महाकवि हरिचन्द्र ने धर्मशर्माम्मुदय में शब्द और अर्थ-दोनों को बड़ी सुन्दरता के साथ संजोया है ।
उपमालंकार की अपेक्षा उत्प्रेक्षालंकार कवि की प्रतिभा को अत्यधिक विकसित करता है । हम देखते है कि धर्मशर्माम्पुदय में उत्प्रेक्षालंकार की धारा महानदी के प्रवाह के समान प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अजस्र गति से प्रवाहित हुई है। उपमा, रूपक, विरोधाभास, श्लेष, परिसंख्या, अर्थान्तरन्यास और दोपक आदि अलंकार भी पद-पद पर इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं । उदाहरण के लिए देखें
श्लेष
लब्धात्मलाभा बहुधान्यवृद्धय निर्मूलयन्ती घननीरसत्वम् ।
सा मेघसंत्रातमपेतपडा शरत्सतां संसदपिक्षिणीतु ॥१-१०॥
-जिसने अनेक प्रकार के अन्न की वृद्धि के लिए स्वरूपलाभ किया है, जो मेत्रों में जल के सदभाव को दूर कर रही है तथा जिसने कीचड़ को दूर कर दिया है, ऐसी शरद् ऋतु मेघों के समूह को नष्ट करे । और जिसने अनेक प्रकार से दूसरों की
साहित्यिक सुषमा
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