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अथवा कर्पूररस के समान उज्ज्वल होता है उसी प्रकार यह सरोवर भी पिघले हुए चन्दूरस अथवा कपूररस के समान उज्ज्वल था। और भी
पीवरोच्चलहरिजोधुरं सज्जनक्रमकरं समन्ततः ।
अधिमुग्रतरवारिमज्जितक्ष्माभूतं पतिमिवावनीभुजाम् ।।५-७१।। तदनन्तर वह समुद्र देखा जो कि श्रेष्ठ राजा के समान था क्योंकि जिस प्रकार श्रेष्ठ राजा पीत्ररोच्चलहरिव्रजोवुर-मोटे-मोटे उछलते हुए घोड़ों के समूह से युक्त होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी पीवरोच्चलहरिखजोधुर--मोटी और ऊंची लहरों के समूह से युक्त था। जिस प्रकार श्रेष्ठ राजा सज्जनामकर-सज्जनों के क्रम-आचार को करनेवाला होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी सज्जनक्रमकर-सजे हुए नाकुओं और मगरों से ग्रंक था और जिस प्रकार श्रेष्ठ राजा उनतरवारिमज्जितक्ष्माभृत्-पैनी तलवार से शत्रु राजाओं को खण्डित करनेवाला होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी उग्रतरवारिमजितक्ष्माभूत्-गहरे पानी में पर्वतों को डुबानेवाला था।
कालिदास की उपमा प्रसिद्ध है पर हम उसे मात्र उपमा के रूप में ही देखते हैं जबकि महाकवि हरिचन्द्र की उपमा, श्लेष आदि अलंकारों के साथ मिलकर कवि की अद्भुत प्रतिभा को प्रकट करती है।
अर्थान्तरन्यास
स वारितो मत्तमरुद्धिपौघः प्रसह्य कामश्रमशान्तिमिच्छन् । रजस्वला अप्यभजत्नवन्ती रहो मदान्धस्य कुतो विवेकः ।। ७-५३॥
जिस प्रकार कोई कामोन्मत्त मनुष्य रोके जाने पर भी बलात्कार से कामचम की शान्ति को चाहता हुआ रजस्वला स्त्रियों का भी उपभोग कर बैठता है उसी प्रकार देवों के मदोन्मत्त हाथियों का समूह वारितः-पानी से अपने अत्यधिक श्रम को शान्ति को पाहता हुआ जबरदस्ती रजस्वला-धूलि से ज्याप्त नदियों का उपभोग करने लगा लो ठीक ही है क्योंकि मदान्ध मनुष्य को विवेक कैसे हो सकता है ? परिसंख्या
निवासु नूनं मलिनाम्बरस्थितिः प्रगल्भकान्तासुरते द्विजक्षतिः । यदि चित्रपः सर्वविनाशसंस्तवः प्रमाणशास्त्र परमोहसंभवः ॥२-३०॥
यदि मलिनाम्बर स्थिति-मलिन आकाश की स्थिति थी तो रात्रियों में ही थो, वहाँ के मनुष्यों में मलिनाम्बर स्थिति-मैले वस्त्रों की स्थिति नहीं थी । विणक्षति-दांतों के घाव यदि थे तो प्रौढ़ स्त्री के सम्भोग में ही थे, वहां के मनुष्यों में द्विज-सतिब्राह्मणादि का घात नहीं था। यदि सर्वविनाश का अवसर आता था तो व्याकरण में प्रसिद्ध विवप् प्रत्यय में ही आता था ( क्योंकि उसी में सब वर्गों का लोप होता है ),
महाकवि हरिचन्न : एक अनुशीलन