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व्यासः
सर्वगामी सर्वत्र निरतिशयं कलमाधत्ते । समाधिरान्तरः प्रयत्नो आह्यस्त्वम्यासः । वावुभावपि शक्तिमुद्भासयतः । ' सा केवलं काव्ये हेतुः' इति यायावरीयः । विप्रसृतिश्च प्रतिभाव्युत्पत्तिभ्याम् । शक्तिकर्तके हि प्रतिभाव्युत्पत्तिकर्मणी । शक्तस्य प्रतिभाति शक्तश्च व्युत्पद्यते । या शब्दग्राममर्थ सार्थ मलङ्कारतन्त्रयुक्तिमार्गमन्यवपि तथाविधमधिहृदयं प्रतिभासयति सा प्रतिभा । अप्रतिभस्य पवार्थसार्थ: परोक्ष इव, प्रतिभावतः पुनरपश्यतोऽपि प्रत्यक्ष इव । यतो मेधाविरुद्रकुमारदासादमो जात्यन्धाः कवयः श्रूयन्ते ।"
उक्त सन्दर्भ का तात्पर्य यह है कि काव्य की उत्पत्ति में मन की एकाग्रता और अभ्यास प्रथम कारण हैं । ये दोनों कवि की शक्ति को उद्भासित करते हैं । शक्ति के उद्भासित होने पर कवि की प्रतिभा और व्युत्पत्ति प्रकट होती है । उस प्रतिभा के द्वारा अभिनव अर्थ की ओर व्युत्पत्ति के द्वारा अर्थानुकूल शब्द समूह की उपस्थिति होती है । शब्द और मयं ही काव्य का दृश्यमान शरीर है ।
अपने इस सिद्धान्त के अनुसार धर्मशर्माभ्युदय में कवि ने शब्द और अर्थ - दोनों ही सम्पतियों को सँजोया है । इसके एक-दो उदाहरण देखिए
कवि कहना चाहता है कि सुन्दर काव्य रचे जाने पर भी कोई विरला मनुष्य ही सन्तोष को प्राप्त होता है सब नहीं, सबमें गुण ग्रहण की क्षमता भी नहीं है । अपने इस भाव को प्रकट करने के लिए नीचे लिने पञ्च में कवि ने जिस शब्द और अर्थसम्पत्ति को संकलित किया हूँ उसपर दृष्टिपात कीजिए
श्रव्येऽपि काव्ये रचिते विपरिसरकश्चित्सचेताः परितोष मेति ।
उत्कोरकः स्यात्तिलक्ररचलाक्ष्याः कटाक्ष भावैरपरे न वृक्षाः ॥ १७॥
-- मनोहर काव्य के रचे जाने पर भी कोई सहृदय विज्ञान ही पूर्ण सन्तोष को प्राप्त होता है क्योंकि किसी चंचललोचना के कटाक्षों से तिलक वृक्ष ही कुड्मलित होता है, अन्य नहीं ।
पुत्र के न होने से राजा महासेन का मन चिन्तातुर होता हुबा किसी एक स्थान पर स्थित नहीं है - इसका वर्णन करने के लिए कवि के शब्द और अर्थ पर दृष्टि दीजिए
का यामि तकि नु करोमि दुष्करं सुरेश्वरं वा कमुपैमि कामदम् । इतीष्टचिन्ताच मचक्र चालितं यत्रचिन चेतोऽस्य बभूव निश्चलम् ॥७४॥
-सर्ग २
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--कहाँ जाऊँ, कौन-सा कठिन कार्य करूँ अपने मनोरथ को पूर्ण करनेवाले किस देवेन्द्र की शरण गहूँ इस प्रकार इष्टपदार्थविषयक चिन्तासमूहरूपी चक्र से चलाया हुआ राजा का मन किसी भी स्थान पर निश्चल नहीं हो रहा था ।
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देवियों द्वारा सुव्रता माता की सेवा की जा रही है - इस सन्दर्भ का एक श्लोक देखिए
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महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन