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उनके मुखारविन्द से धर्म का उपदेश सुना और अन्त में सकुचाते हुए, सुब्रता के पुत्र न होने का कारण पूछा । मुनिराज ने कहा- तुम्हारी इस रानी के गर्भ से तीर्थकर पुत्र उत्पन्न होनेवाला है, चिन्ता क्यों करते हो ? इतना कहकर उन्होंने तीर्थकर के पूर्वभघों फा निम्न प्रकार वर्णन सुनाया।
धातकीखण्ड द्वीप के वत्स देवा में सुसीमा नाम का नगर था । वहीं राजा दशरथ राज्य करते थे । एक दिन रात्रि में चन्द्रग्रहण देखकर उनका भवभीरु मन संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया। उन्होंने राज्य-वैभव छोड़कर मुनिदीक्षा लेने का विचार सभा में रखा । जिसे सुनकर चार्वाक मत का पक्षपाती सुमन्य मन्त्री परलोक का खण्डन करता हुआ राजा के प्रयत्न को व्यर्थ बतलाने लगा। परन्तु राजा ने सारगर्भित युक्तियों द्वारा सुमन्त्र की मन्त्रणा का निरसन कर विमलवाहन मनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली । घोर तपश्चर्या की और दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन कर तीर्थकर-प्रकृति का बन्ध किया। वे आयु के अन्त में समाधि धारण कर सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र हुए : है राजन् ! ई मा के ला अहभित्र का जीव, तुम्हारी रानी सुत्रता के गर्भ में अवतीर्ण होगा और पन्द्रहवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध होगा। मुनिराज के इन वचनों से राजा महासेन और रानी सुत्रता के हर्ष का पार नहीं रहा । अन्त में मुनिराज को नमस्कार कर राजदम्पती अपने घर गये ।।
इन्द्र की आज्ञा पाफर श्री, ही आदि देवियों का समूह जिनमाता की सेवा करने के लिए गगन-मार्ग से पृथिवीतल पर अक्तीर्ण हुआ और राजा की आज्ञा से अन्तःपुर में प्रविष्ट हो रानी सुव्रता की सेवा करने लगा। रानी ने नियोगानुसार ऐरावत हाथी आदि सोलह स्वप्न देखे । राजा महासेन ने उनका उत्तम फल सुनाकर उसे सन्तुष्ट किया । रानी गर्भवती हुई।
गर्भावस्था के कारण रानी सुव्रता के शरीर की शोभा निराली हो गयी । माघशुक्ल-त्रयोक्शी की पुण्य बेला में पुष्य नक्षत्र के रहते हुए धर्मनाथ तीर्थकर का जन्म हुआ। तीर्थंकर का जन्म होते ही समस्त लोक में भानन्द छा गया। सौधर्म इन्द्र, चतुर्विध देवों के साथ नाना प्रकार के उत्सव करता हुआ रत्नपुर नगर आया । इन्द्राणी ने प्रसूतिका-ह में स्थित जिनमाता की गोद में मायानिर्मित बालक को रखकर जिन-बालक को उठा लिया तथा लाकर इन्द्र को सौंप दिया। इन्द्र भी जिन-वालक को लेकर ऐरावत हाथी पर सवार हुआ और सुरसेना के साथ आकाश-मार्ग से सुमेरु पर्वत पर पहुँचा । सुमेरु पर्वत को अद्भुत शोभा देख, इन्द्र का हृदय बाग-बाग हो गया । सुरसेना पाण्डुक वन में विश्राम करने लगी। पाक बन में स्थित पाण्डक शिला को देखकर इन्द्र बहुत ही सन्तुष्ट हुआ।
पाण्डुक शिला के ऊपर स्थित मणिमय सिंहासन पर इन्द्र ने जिन-बालक को विराजमान किया । कुबेर अभिषेक की तैयारियां करने लगा। अभिषेक का नल लाने के लिए देवों की पंक्तियां क्षीरसागर गयीं। वे क्षीरसागर की अद्भुत शोभा देख बहुत ही
- महाकवि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीलन
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