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"घातकीखण्ड द्वीप के पूर्वमेससम्बन्धी पूर्वविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम का देश है। उसकी पुण्डरी किणी नगरी में राजा जयन्धर राज्य करता था। उसकी जयावती रानी से तू जयद्रथ नाम का पुत्र हुआ था। किसी समय जयद्रथ क्रीड़ा करने के लिए मनोहर नामक वन में गया। वहां उसने सरोवर के किनारे एक इस शिशु को देखकर कोतुकवश चतुर सेवकों के द्वारा उसे पकड़वा लिया और उसके पालन करने का प्रयत्न करने लगा। मह देख उस शिशु के माता-पिता शोकाकुल हो आकाश में बार-चार करुण कन्दन करने लगे। उनका शब्द सुन तेरे एक सेवक ने बाण द्वारा उस शिशु के पिता को मारकर नीचे गिरा दिया। यह देख, जयद्रथ की माता का हृदय या से बात हो गया। उसने पाला
किया है। कार से सब समाचार जानकर वह पक्षी के मारनेवाले सेवक पर बहुत कुपित हुई तथा सुल्ले भी डांटकर कहने लगी कि तेरे लिए यह कार्य उचित नहीं है, तू शीघ्र ही इस शिशु को इसकी माता से मिला दे। इसके उत्तर में तूने कहा कि यह कार्य मैंने अज्ञानतावश किया है और जिस दिन उस शिशु को पकड़वाया था उसके सोलहवें दिन उसकी माता से मिला दिया। काल पाकर जयद्रथ भोगों से विरक्त हो साधु हो गया और अन्त में सल्लेखना कर सहस्रार नामक स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ की आयु समाप्त कर तू जीवन्धर हुआ है और पक्षी को मारनेवाला सेवक काष्ठांगारिक हुमा है। उसी ने तुम्हारा जन्म होने के पूर्व तुम्हारे पिता राजा सत्यन्धर को मारा है। सुमने सोलह दिन तक हंस-शिशु को माता-पिता से अलग रस्ना था उसी के फलस्वरूप तुम्हारा सोलह वर्ष तक माता-पिता तथा भाइयों से वियोग हुआ है। जीवन्धरकुमार उस विद्याधर से अपने पूर्वभव सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।"'
इधर जब नन्दाब्य राजपुरी नगरी से बाहर हुषा तब मधुर आदि मित्र शंका में पड़ गये। उन्होंने गन्धर्वदत्ता से पुछा तो उसने स्पष्ट बताया कि इस समय जीवन्धर और नन्द, क्य, दोनों भाई सुजनदेश के हगामनगर में सुख से विराज रहे हैं। गन्धर्वदत्ता से पता आदि पूछकर सब भित्र उन दोनों से मिलने के लिए चल पड़े। मार्ग में जब वण्डक वन में पहुंचे तो वहीं तापसी के वेप में रहनेवाली विजयारानी से उनको भेंट हुई। वार्तालाप के प्रसंग में काष्ठांगारिक के द्वारा जीवन्धर के मारे जाने का अपूर्ण समाचार सुनकर विजया को बहुत दुल हुआ परन्तु पश्चात् पूर्ण समाचार सुनकर समाधान को प्राप्त हुई।
दण्डक वन से आगे जाने पर मधुर आदि को भीलों की सेना ने घेर लिया परन्तु अपनी शुरवीरता से उसे परास्त कर वे आगे निकल गये। हेमाभनगर के निकट पहुँचकर उन्होंने वहां के गोपालों की मायें छीन ली। उनकी चिल्लाहट सुन जीवन्धर
१. जोवनभरपा तथा गा चिन्तामणि अादि में उपलेख है कि जोमस्थर पूर्व भष में धातकौरखण्ड
द्वीप के भूमितिज्ञक नगर के राजा पवनवेग के यशोधर नामक पुत्र थे। सशिशु के पकड़ने पर पिता ने जोवन्धर को उपदेश दिया था।
कथा