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भाई लक्ष्मण का भी उल्लेख किया है। जिस प्रकार रामचन्द्रजी अपने भक्त और शक्त--- समर्थ छोटे भाई लक्ष्मण के द्वारा समुद्र के पार को प्राप्त हुए थे उसी प्रकार महाकवि हरिचन्द्र भी अपने भक्त तथा शपत छोटे भाई लक्ष्मण के द्वारा गृहस्थी के भार से निर्व्याकुल हो शास्त्र रूपी समुद्र के द्वितीय पार को प्राप्त हुए थे । कवि ने यह तो लिखा है कि गुरु के प्रसाद से उनकी वाणी निर्मल हो गयी थी पर वे गुरु कौन है ? यह नहीं लिखा । प्रतिपादित पदार्थों के वर्णन से प्रतीत होता है कि वे दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे।
यद्यपि यह जन्मना कायस्थ थे और कायस्थों में वैष्णव धर्म का प्रचार देखा जाता है परन्तु अपने परीक्षा-प्रधान गुण के कारण इन्होंने जैन-धर्म स्वीकृत किया था ऐसा जान पड़ता है 1 स्वयं जैन न होते हुए केवल अर्थलाभ के उद्देश्य से उन्होंने जैन महाकाव्यों की रचना की होगी यह सम्भावना नहीं की जा सकती क्योंकि 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'जीवन्घरचम्पू' दोनों ही ग्रन्थों में जैन तत्त्व का जो भी वर्णन किया गया है उससे कवि की जैनधर्म में पूर्ण आस्था प्रकट होती है । अन्तरंग की आस्था के बिना ऐसा वर्णन सम्भव नहीं दिखता।
___महाकवि, धर्म के विषय में मनुष्य की आस्था को स्वतन्त्र छोड़ देना अच्छा समझते थे । कोई भी मनुष्य अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म में अपनी आस्था रखने और सदनुसार आचरण करने में स्वतन्त्र है 1 धर्मशर्माम्युदय के चतुर्थ सर्ग में वर्णित सुसीमा नगरी का राजा दशरथ जैन था परन्तु उसकी सभा में जो सुमन्त्र मन्त्री था वह चार्वाक मत का अनुयायी था। चन्द्रग्रहण को देख राजा दशरष, संसार शरीर और भोगों से निर्विष्ण होकर मुनि-दोक्षा धारण करने का विचार सभा में प्रकट करते हैं उसके उत्तर में सुमन्त्र मन्त्री अपनी धारणा के अनुसार परलोक का खण्डन करता हुआ राजा के उस प्रयत्न को व्यर्थ बतलाता है। राजा दशरथ सुमन्त्र के वक्तव्य का सुयुक्तियों से खण्डन तो करते हैं पर यह धमकी नहीं देते कि तुम हमारे अधीनस्थ मन्त्री होकर हमारे धर्म की निन्दा करते हो, साथ ही हमारे प्रयत्न को व्यर्थ बतलाते हो अत: हमारे मन्त्री नहीं रह सकते ? सुमन्त्र मन्त्री के मन में भी यह आतंक उत्पन्न हुआ नहीं दिखता कि मैं महाराज के द्वारा स्वीकृत धर्म की बुराई कर चावकिमत की प्रशंसा करता हूँ, इससे महाराज रुष्ट न हो जायें । इस सन्दर्भ से यह सिद्ध होता है कि महाकवि हरिचन्द्र धर्म के विषय में प्रत्येक मानव को स्वतन्त्र रहने देना चाहते हैं। अपनी रचनाओं में जैन सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए वे किसी अन्य सिद्धान्त की कटु आलोचना नहीं करते है इससे कवि की धर्म-विषयक उदारता प्रमाणित होती है। १. देव स्त्रदारमिदं विभाति नभःप्रसुनाभरणोपमानम् । जीवारपया तत्वमपीह नास्ति कुरास्तमी तपरसोश्वार्ता ॥६॥ विहाय तवष्टमारहेतो'धा कृया: पार्थिव मा प्रयत्नम् । को न। स्तमामाण्यनग धेनोग, निदग्धो ननु दोग्थि गम् ||
४-६६॥ धर्मशर्माभ्युदय महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन