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महाकवि हरिचन्द्र' सरल और विनयी थे। उन्हें इस बात का अहंकार नहीं था कि मैं एक बड़ा कवि हूँ । ग्रन्थ के प्रारम्भ में अपनी लघुता बतलाते हुए वे बहुत ही नन । शब्दों में कहते हैं
वियत्पथप्रान्तपरीक्षणाद्वा तदेतदम्भोनिधिलङ्घनाद्वा । मात्राधिकं मन्दघिया मयापि यद्वय॑ते जैनचरित्रमत्र ।।११।। पुराणपारीणमुनीन्दवाग्भिर्यद्वा ममाप्यत्र गतिवित्री ।
सुप सिध्यत्यधिरोहिणः मिमिनस्यापि भनाभिलाषः ॥१२॥ मुझ' मन्दबुद्धि के द्वारा भी इस ग्रन्थ में जो जिनेन्द्रदेव का चरित्र कहा जा रहा है सो मेरा यह कार्य समुद्र को लांघने अथवा आकाश-मार्ग के अन्त के अवलोकन से भी कुछ आंधक है-उक्त दोनों कार्य तो अशक्य है ही पर यह कार्य उनसे भी कुछ अधिक अशक्य है।
___ अथवा पुराण-रचना में निपुण महामुनियों के वचनों से मेरी भी इसमें गति हो जायेगी, क्योंकि सीढ़ियों के द्वारा लघु मनुष्य को भी मनोभिलाषा उत्तुंग भवन सम्बन्धी शिखर पर चढ़ने में पूर्ण हो जाती है ।
महाकवि हरिचन्द्र को यह विनयोक्ति कालिदास की निम्नांकित विमयोहित के अनुरूप है
क्व सूर्यप्रभयो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः । तितोषदुस्तर मोहाङ्पनास्मि सागरम् ।।२।। मन्दः कवियश:-प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् । प्राशुलभ्ये फले लोभाधुबाहुरिब वामनः ।।३।। अथवा कृत बाग्द्वारे बंशेऽस्मिन् पूर्वसूरिभिः ।।
मणौ बनसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मै गतिः ॥४॥ (रघुवंश सर्ग १) कवि कहता है
नृपो गुरूणां विनयं प्रदर्शयन् भवेदिहामुत्र च मङ्गलास्पदम् । स घाविनीतस्तु तनुनपादिव ज्वलन्नशेषं दहति स्वमाश्रयम् ॥३४॥
(सर्ग १८) गुरुओं की विनय को प्रदर्शित करनेवाला राजा इस लोक तथा परलोक में मंगलभाक् होता है। यदि वहो राजा अधिनीस-विनयहीन (पक्ष में अवि-मेष रूप बाहृन पर भ्रमण करनेवाला) हुआ तो अग्नि के समान प्रज्वलित होता हुआ अपने समस्त आश्रय को जला देता है।
महाकवि हरिचन्द्र का परिवार विस्तृत नहीं था। उन्होंने प्रशस्ति में माता-पिता के अतिरिक्त मात्र लक्ष्मण नामक छोटे भाई का उल्लेख किया है। साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि उनका वह भाई भक्त और शक्त-दोनों था । अपने अग्रज की सुखसुविधा का सदा ध्यान रखता था और कुटुम्ब के परिपालन में समर्थ था। भाई के इन
भाधारभूमि