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ज्यों था त्यों ठहराया
ध्यान का अर्थ है--वह कीमिया जो प्राकृत को संस्कृत करती है। जैसे कोई अनगढ़ पत्थर को गढ़ता है और मूर्ति प्रकट होती है। जैसे कोई खदान से निकले हीरे को निखारता है, साफ करता है, पहलू उभारता है--तब हीरे में चमक आती है, दमक आती है। तब हीरा हीरा होता है। हम सब पैदा होते हैं अनगढ़ पत्थर की भांति। वह हमारा प्राकृत रूप है। संभावना की तरह हम पैदा होते हैं। फिर उन संभावनाओं को--और वे अनंत हैं--वास्तविकता में रूपांतरित करना, संभावनाओं को सत्य बनाना, उसकी कला ध्यान है। लेकिन अकसर यह हो जाता है कि हम सभ्यता और संस्कृति को पर्यायवाची बना लेते हैं। सभ्यता बाहर की बात है, संस्कृति भीतर की। सभ्यता शब्द का अर्थ होता है: सभा में बैठने की योग्यता, समाज में जीने की क्षमता। औरों से कैसे संबंध रखना, इसकी व्यावहारिक कुशलता का नाम सभ्यता है--शिष्टाचार। भीतर कूड़ा-कचरा हो, भीतर क्रोध हो, भीतरर ईष्या हो, भीतर सब रोग हों, मगर कम से कम बाहर मुस्कुराए जाना! भीतर विषाद हो, मगर बाहर न लाना! भीतर घाव हों, घावों को फूलों से छिपाए रखना! दूसरों के साथ यूं मिलना जैसे कि तुम धन्यभागी हो, सब पा लिए हो! मुखौटे लगाए रखना! सभ्यता मुखौटे लगाना सिखाती है। फिर तरहत्तरह के मुखौटे हैं--हिंदुओं के और, मुसलमानों के और; जैनों के और, बौद्धों के और; भारतीयों के और, चीनियों के और, रूसियों के और! फिर संसार मुखौटों से भरा हुआ है। इसलिए सभ्यताएं अनेक होंगी। भारत की अलग होगी और अरब की अलग होगी और मिश्र की अलग होगी। इतना ही क्यों, भारत में भी बहुत सभ्यताएं होंगी--जैन की अलग होगी, हिंदू की अलग होगी, मुसलमान की अलग होगी, ईसाई की अलग होगी, सिक्ख की अलग होगी; पंजाबी की अलग होगी, गुजराती की अलग होगी, महाराष्ट्रियन की अलग होगी; उत्तर की अलग होगी, दक्षिण की अलग होगी! भेद पर भेद होंगे; खंड पर खंड होंगे। लेकिन संस्कृति एक ही होगी। संस्कृति भारतीय नहीं हो सकती, हिंदू नहीं हो सकती, गुजराती नहीं हो सकती, पंजाबी नहीं हो सकती, बंगाली नहीं हो सकती। क्योंकि संस्कृति तो अंतरात्मा का परिष्कार है। सभ्यता बाहर की बात है। वह औपचारिक है। स्वभावतः अलग-अलग होगी। अलम मौसम, अलग भूगोल, अलग जरूरतें--निश्चित ही सभ्यता को अलग कर देंगी। वह एक जैसी नहीं हो सकती। पश्चिम में सभ्यता और होगी, वहां के अनुकूल होगी--वहां के भूगोल, वहां के मौसम, वहां की जलवायु के अनुकूल होगी। अब वहां जूते पहने रहना चौबीस घंटे, मोजे पहने रखना, टाई बांध रखना--बिलकुल अनुकूल है। लेकिन मूढ हैं वे जो भारत में टाई बांधे घूम रहे हैं! सर्द मुल्कों में, हवा जरा भी भीतर न चली जाए, इसकी चेष्टा चलती है। लेकिन गर्म मुल्कों में, जहां पसीना बह रहा है, वहां लोग टाई कसे हए बैठे हैं। इनसे ज्यादा मुद और कौन होंगे? भारत में जूते कसे बैठे हैं दिन भर, मोजे भी पहने हुए हैं! पसीने से तरबतर हैं, बदबू छूट रही है। लेकिन उधार। सभ्यता उधार ली कि तुम सिर्फ मूढता जाहिर करते हो।
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