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ज्यों था त्यों ठहराया
संगीतपूर्ण बना रहता है। अस्तव्यस्त नहीं होता; असंगत नहीं होता; विसंगत नहीं होता। रेखाएं एकदम अराजक नहीं हो जातीं। वही पूर्ण लयबद्धता बनी हरती है।
और चकित होओगे तुम यह जान कर कि एक वृक्ष को तुम जब काटते हो, तो आसपास के खड़े वृक्ष भी दुखी होते हैं। वही वृक्ष दुखी नहीं होता। उन वृक्षों की संवेदनशीलता भी जांची गई है। पाया गया है कि वे सब दुखी हो जाते हैं। और यूं ही नहीं कि एक वृक्ष को काटने पर दुखी होते हैं। तुम एक पक्षी को मारो, तो भी वृक्ष दुखी होते हैं। तो महावीर ने ठीक कहा कि वृक्षों में जीवन है। महावीर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा कि वृक्षों में परिपूर्ण जीवन है--उतना ही, जितना तुम में। बात तो सही कही। ध्यान के अनुभव से कही। लेकिन परिणाम जैनों में क्या हआ! कुल इतना हुआ कि इन्होंने खेतीबाड़ी बंद कर दी। परिणाम यह होना चाहिए था कि उन्हें खेतीबाड़ी का कोई नया सृजनात्मक, प्रेमपूर्ण मार्ग खोजना था। केनेडा के एक विश्वविद्यालय में उन्होंने एक ही तरह के पौधे लगाए--दो पंक्तियों में, थोड़े से फासले पर। उनको एक-सी खाद दी। एक-सा पानी दिया। कोई और भेद नहीं। बराबर उम्र के पौधे लगाए। लेकिन एक पंक्ति में पौधों को माली ने प्रेम दिया। थपथपाए। दो बात करे। उनसे कहे कि जल्दी बड़े हो जाओ! प्रतीक्षा कर रहा हूं। खिलो। फूल बने। और दूसरों की बिलकुल उपेक्षा करे। उसे कोई बात नहीं। उनकी तरफ से पीठ कर के चला आए। उनको सुविधा उतनी ही दे, जितनी पहले को, लेकिन प्रेम बिलकुल नहीं।
और चकित हए वैज्ञानिक यह जान कर कि जिन पौधों को प्रेम दिया गया, वे दुगुने बड़े हए। उनके फूल दुगुने बड़े हए। उनके फूलों की शान और। उनकी गंध और। और जिन पौधों को कोई प्रेम नहीं दिया गया, वे अधूरे ही बढ़े। उनके फूल भी छोटे आए। उनकी गंध भी वैसी प्रगाढ़ न थी। उनका सौंदर्य और निखार भी वैसा न था। अगर मैं तुमसे कहूंगा, तो यह नहीं कहूंगा कि खेतीबाड़ी बंद कर दो। मैं तुम्हें खेतीबाड़ी का नया ढंग सिखाऊंगा। क्योंकि खेतीबाड़ी कैसे बंद हो सकती है? कोई तो करेगा। तुम बिना भोजन के तो नहीं रह सकते। महावीर भी नहीं रह सकते। कोई जैन नहीं रस सकता। तो कोई खेतीबाड़ी करेगा। तो फिर खेतीबाड़ी करने का कोई प्रेमपूर्ण ढंग खोजना चाहिए। जब खेतीबाड़ी करनी ही है, जब बगीचा लगाना ही होगा, तो कोई नया ढंग खोजना ही होगा। ऐसे भगोड़ेपन से काम नहीं चलेगा। हिंसा मत करो--इतने से काम नहीं चलेगा। प्रेम करो। विधायकता देनी होगी। हिंसा मत करो--यह नकारात्मक बात है। नकार से जीवन नहीं जीया जाता। विधेय से जीवन जीया जाता है। लेकिन विधेय पैदा होता है ध्यान से। और नकार पैदा होता है विचार से। तुम सिर्फ विचार के अनुसार चल रहे हो। कोई सिखाता है उधार, तुम सीख लेते हो और चल पड़ते हो। तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति नहीं होती। तुमसे कहा जाता है, पाप न करो। यह ऐसे ही है, जैसे कोई अंधे से कहे कि देखो, फर्नीचर से मत टकराना। अब अंधा निकलेगा, तो टकराएगा। दीवाल से टकराएगा, फर्नीचर से
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