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ज्यों था त्यों ठहराया
इन पैगंबर ने उसके हाथ को रोक दिया, मुंह में कौर जाने से पहले ही। कहने लगे, बिस्मिल्लाह किए बगैर खाने नहीं दूंगा। अल्लाह का नाम ले कर शुरू करो। लेकिन उस बूढ़े ने इनकार कर दिया बिस्मिल्लाह करने से। वह बोला, मैं तो आतिश परस्त, अग्नि-पूजक पारसी हूं। मैं नहीं मानता इसलाम को। इसलिए आप चाहें, तो खिलाएं, न खिलाएं। मैं बिस्मिल्लाह नहीं बोलूंगा! तभी आकाश से एक आयत (वहय) नाजिल हुई कि ऐ पैगंबर, इस आदमी को हम सत्तर वर्ष से खाना दे रहे हैं। हमने इसे कभी नहीं कहा कि हमारा नाम लो। न कभी इसने बिस्मिल्लाह ही की। फिर तुम क्यों इसको खाने से रोक रहे हो? सिर्फ एक दिन खिलाने में भी तुम शर्त लगा रहे हो! यह आवाज सुनी, तो पैगंबर रोने लगे और उस व्यक्ति से बोले, मुझे क्षमा कर दो और खाना खाओ। धर्म की कोई शर्त नहीं, कोई सीमा नहीं। राम कहो, रहीम कहो, अल्लाह कहो, ओंकार कहो; कुछ न कहना हो, कुछ न कहो--मौन रहो। अग्नि को पूजो--वह भी उसका प्रतीक है। जल को पूजो--वह भी उसका प्रतीक है। सब उसके प्रतीक हैं, क्योंकि वही है--और तो कुछ भी नहीं है।
चौथा प्रश्न: भगवान, क्या मैं भी कभी उस ज्योति को पा सकूँगा, जिसके दर्शन आप में मुझे होते हैं? सत्यप्रेम! क्यों नहीं! मैं तो केवल दर्पण हूं। मेरा तो इतना ही उपयोग है कि तुम्हें तुम्हारी याद दिला दूं। वह ज्योति जो तुम्हें मुझमें दिखाई पड़ रही है, तुम्हारी भी ज्योति है। तुम्हें उसका होश नहीं; मुझे उसका होश है। जरा-सा भेद है। तुम सोए हो, मैं जागा हं। तुम भी वही हो, मैं भी वही हूं। तुम अपनी तरफ पीठ किए हो, मैंने अपनी तरफ मुंह कर लिया। तुम विमुख हो, मैं सन्मुख हो गया हूं। मगर बात तो वही की वही है। अब तुम दीए की तरफ पीठ करके खड़े हो जाओ, तो दीया दिखाई नहीं पड़ेगा। स्वभावतः। जरा मुड़ आओ--और दीया दिखाई पड़ने लगेगा। तुम्हारे भीतर भी ज्योति छिपी है। जीवन ही तो ज्योति है। जीवन ही तो परमात्मा है। तुम पूछते हो, क्या मैं कभी उस ज्योति को पा सकूँगा? कभी क्यों--अभी पाप सकते हो-- यहीं पा सकते हो। जरा-सा मुड़ने की बात है। दिल के आईने में है तसवीरे यार जब जरा गर्दन झुकाई देख ली। बस, जरा-सी गर्दन झुकाने की बात है! न पूछो कौन हैं, क्यों रह में नाचार बैठे हैं। मुसाफिर हैं, सफर करने की हिम्मत हार बैठे हैं।।
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