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ज्यों था त्यों ठहराया
जाग जाना चाहिए। मरने के पहले तो जाग जाना चाहिए। मरने के पहले तो सारे व्यर्थ के जाल-जंजाल से छुटकारा कर लेना चाहिए। मरने के पहले जीवन क्या है--इसकी पहचान हो जानी चाहिए। जिसको हो जाती है--उसे महासुख। यह श्लोक कीमती है। यह कहता है--यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परंगतः। वे जो मूढ हैं, वे भी सुखी हैं नकारात्मक अर्थों में। क्योंकि उनको दुख का पता नहीं। और वे जो बुद्धपुरुष हैं, बुद्धजन हैं, जो परम गति को उपलब्ध हए, वे भी सुखी है--विधायक अर्थों में। उन्हें पता है कि सुख क्या है। वे महासुखी हैं। भेद को समझ लेना। दोनों का सुख अलग-अलग है। मूढ का सुख वैसा ही, जैसा बेहोश आदमी का आपरेशन हो रहा है, और उसे पता नहीं। काशी के नरेश का आपरेशन हुआ उन्नीस सौ आठ में। अपेंडिक्स का आपरेशन था। लेकिन काशी के नरेश ने क्लोरोफार्म लेने से इनकार कर दिया। और कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं जानता हूं कि मैं शरीर नहीं। आपरेशन करो। अंग्रेज डाक्टर बड़ी मुश्किल में पड़े। आपरेशन करना तत्क्षण जरूरी है, नहीं तो मौत हो सकती है। एपेंडिक्स फूट सकती है। संघातिक स्थिति है। ठहरा नहीं जा सकता। और काशी के नरेश को जबर्दस्ती भी नहीं की जा सकती। वे कहते हैं कि बेहोश करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं ध्यान करता रहूंगा, तुम आपरेशन कर देना! कभी यह घटना घटी न थी इसके पहले। डाक्टरों ने बहुत झिझकते हुए समझाने की कोशिश की। लेकिन समझाने के लिए समय भी न था। तब मजबूरी में उन्होंने कहा कि ठीक है। थोड़ी-सी चीरफाड़ कर के देखी कि क्या परिणाम होता है। लेकिन काशी-नरेश तो आंख बंद किए मस्त ही रहे। आंखों से आनंद के आंसू झरते रहे। फिर उन्होंने अपेंडिक्स भी निकाल ली। वे आनंद के आंसू झरते ही रहे। चेहरे पर एक आभा--जैसे पता ही न चला! जैसे उन्होंने कुछ इस बात का हिसाब ही न लिया। अपेंडिक्स पहली दफा मनुष्य जाति के इतिहास में बिना बेहोश किए निकाली गई। चिकित्सक चकित थे। भरोसा न आता था अपनी आंखों पर--कि इतना बड़ा आपरेशन हो और कोई व्यक्ति हिले-डुले भी नहीं! पूछा उन्होंने काशी नरेश को कि इसका राज क्या है? उन्होंने कहा, राज कुछ भी नहीं। राज इतना ही है कि मैं जानता हूं--मैं शरीर नहीं हूं। मैं साक्षी हूं। मैं अपने साक्षी-भाव में रहा। मैं देखता रहा कि अपेंडिक्स निकाली जा रही है। पेट फाड़ा जा रहा है। औजार चलाए जा रहे हैं। मैं द्रष्टा हूं। शरीर अलग है। मैं यूं देखता रहा, जैसे कोई किसी और के शरीर की शल्यक्रिया देखता हो। मैं शरीर नहीं हूं; और ही है शरीर। ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के लिए कोई दुख नहीं है, क्योंकि दुख शरीर और मन के ही होते हैं; आत्मा का कोई दुख नहीं होता। आत्मा का स्वभाव आनंद है। हमने शरीर के साथ अपने को एक मान रखा है, तो हम दुखी हैं। मन के साथ अपने को जोड़ रखा है, तो हम दुखी हैं। मन यानी माया। मन यानी मोह। मन यानी सारा संसार; यह सारा विस्तार। मन और शरीर से अलग जिसने अपने को जान लिया, वह परम बुद्धत्व
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