Book Title: Jyo tha Tyo Thaharaya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

View full book text
Previous | Next

Page 178
________________ ज्यों था त्यों ठहराया सोना खराब हो गया। नींद हराम कर दी है। क्या सूत्र तुमने दिया! यह मनोवैज्ञानिक ने सोचा ही न था कि दिन में यह सिर्फ दिन को ही गिनेगा--रात छोड़ देगा! मेरे पास एक दफा एक युवक लाया गया। उसके पिता, उसके मां रो रहे थे। उन्होंने कहा कि हम थक गए! विश्वविद्यालय से इसको हटाना पड़ा। इसको एक भ्रांति हो गई है। एक मक्खी इसके भीतर घुस गई है--यह इसको भ्रांति हो गई है। यह मुंह खोल कर सोता है, तो इसको भ्रांति हो गई कि मुंह खुला था और मक्खी अंदर चली गई। शायद मक्खी चली गई भी हो। वह तो निकल भी गई। एक्स-रे करवा चुके। डाक्टरों से चिकित्सा करवा चुके। मगर यह मानता ही नहीं। यह कहता है, वह भनभना रही है। भीतर चल रही है। बस, ये चौबीस घंटे यही राग लगाए रखता है कि यह इधर पैर में घुस गई अंदर! इधर हाथ में आ गई! यह देखो, इधर आ गई--इधर चली गई। इसको कोई दूसरा काम ही नहीं बचा है; न सोता है, न सोने देता है। न खाता है, न खाने देता है! मक्खी भनभना रही है! सिर में घुस जाती है! सिर से पैर तक चलती रहती है! चिकित्सकों ने कह दिया, भई, यह सब भ्रांति है। हम कुछ भी नहीं कर सकते। किसी ने आपका नाम लिया, तो आपके पास ले आए। मैंने कहा, कोशिश कर के देखें। मैंने कहा, यह कहता है, तो ठीक ही कहता होगा। जरूर मक्खी घुस गई होगी। उस युवक की आंखों में एकदम चमक आ गई। उसने कहा, आप पहले आदमी हैं, जो समझे। कोई मानता ही नहीं मेरी। जिसको कहता हूं, वही कहता है--पागल हो गए हो! अरे, पागल हो गया हूं--कैसे पागल हो गया हूं! मुझे बराबर भन-भनाहट सुनाई पड़ती है। चलती है। कभी छाती में घुस जाती है। कभी पैर में चली जाती है। कभी सिर में! मेरी मुसीबत कोई नहीं समझता। अब नहीं आती तुम्हारे एक्स-रे में, तो मैं क्या करूं! मगर मुझे अपना अनुभव हो रहा है। अपना अनुभव मैं कैसे झुठला दूं। लाख समझाओ मुझे! मेरा सिर खा गए समझा-समझा कर! एक मक्खी मुझे सता रही है। और बाहर के समझाने वाले मुझे सता रहे हैं। ये मां-बाप समझाते हैं। मुहल्ले भर में जो देखो वही समझाता है। डाक्टर समझाते हैं। जहां ले जाते हैं, वहीं लोग समझाते हैं--भई, छोड़ो यह बात। कहां की मक्खी ! अगर घुस भी गई होगी, तो मर-मरा गई होगी। कोई ऐसे भनभना सकती है अंदर! मगर मैं क्या करूं! भनभनाती है। मक्खी मानती नहीं--मैं मान भी लूं, तो क्या होता है! मैंने कहा, तुम बिलकुल ठीक कहते हो। मक्खी अंदर घुसी है। जब तक निकाली न जाए, कुछ हो नहीं सकता। तो तुम लेट जाओ। आंख पर मैंने उसकी पट्टी बांध दी। और मैं भागा पूरे घर में खोजबीन की कि किसी तरह एक मक्खी पकड़ लूं। बामुश्किल एक मक्खी पकड़ पाया। उसकी पट्टी खुलवाई। उसको मक्खी दिखाई। उसने कहा, अब यह कोई बात हुई! अपने बाप से बोला, देखो, अब यह मक्खी कहां से निकली? कहां गए वे एक्स-रे! Page 178 of 255 http://www.oshoworld.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255