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ज्यों था त्यों ठहराया
जो यहां सलाह देने आया है, वह सलाह कैसे ले सकेगा? एक ही काम कर लो, तो बहुत! इतनी बुद्धिमानी न दिखाओ! मुझे अपने ढंग से जीना है। अपने ढंग से ही जीऊंगा। इस तरह के कूड़ा-करकट को मैं यहां पसंद भी नहीं करता। उन्होंने लिखा है, अब तो आपका आश्रम आत्मनिर्भर हो गया है। अब फीस क्यों? जैसे कि इनके द्वारा आत्मनिर्भर हो गया हो! जैसे कि तुम्हारी फीस से आत्मनिर्भर हो गया हो! और तुम्हें क्या पता इस आश्रम को कितना बड़ा होना है। यह आश्रम कभी भी इतना आत्मनिर्भर नहीं हो जाएगा कि इसको फीस की जरूरत न रहे। क्योंकि यह विकासमान है। यह तो बढ़ता ही चला जाएगा। यह फैलता ही चला जाएगा। इस आश्रम में कम से कम एक लाख संन्यासी तो होने ही चाहिए। इससे कम क्या चलेगा! और तुम पांच-दस रुपए के लिए मरे जा रहे हो। मगर तुम यह सोच रहे हो कि तुमने बड़ी कीमत की बात कही है। जरा मुझसे कुछ बातें कहने के पहले सोच लिया करे। यहां सलाह नहीं चलेगी। मुझे पता है, मैं क्या कर रहा हूं, क्यों कर रहा हूं। गुरजिएफ ने अपनी पहली किताब छापी; तो उसके दाम रखे उसने--एक हजार रुपए। उस जमाने में, आज से पचास साल पहले, एक हजार रुपया बहुत कीमती चीज थी। आज से डेढ़ सौ साल पहले ब्रिटिश गवर्नमेंट ने पूरा का पूरा कश्मीर गुलाब सिंह को, कर्णसिंह के दादा-परदादा को, सिर्फ तीस लाख रुपए में बेच दिया था। पूरा कश्मीर! और आज से तीन सौ साल पहले पूरा न्यूयार्क वहां के आदिवासियों ने परदेश से आए हुए लोगों के लिए सिर्फ तीस रुपए में बेच दिया था--पूरा न्यूयार्क! आज से पचास साल पहले हजार रुपए की बड़ी कीमत थी। जो भी लेने की सोचता किताब, उसकी हिम्मत न होती। हजार रुपए! लोग गुरजिएफ से पूछते कि किसी बुद्धपुरुष ने कभी अपनी किताबों के ऐसे दाम नहीं रखे? गुरजिएफ कहता, उनकी वे जानें। मेरी मैं जानता हूं। जो आदमी हजार रुपए नहीं चुका सकता, उसकी कोई अभीप्सा नहीं है। उसकी कोई आकांक्षा नहीं है। सत्य मुफ्त नहीं मिलता। और तुम भाषा समझते हो धन की। धन की ही एकमात्र भाषा तुम समझते हो। उसको ही छोड़ने में तुम्हारी आत्मा एकदम कष्ट पाने लगती है। तो गुरजिएफ ने अपनी किताब...एक हजार पन्नों की किताब है। उसमें सो पन्ने भूमिका के कटवा रखे थे। और बाकी नौ सौ पन्ने जुड़े हुए थे; काटे नहीं थे। तो वह कहता कि तुम ले जाओ। सौ पन्ने पढ़ लेना। अगर न जंचें, तो अपने हजार रुपए वापस ले जाना और किताब वापस कर देना। अगर जंचें तो ही आगे के पन्ने काटना। नहीं तो काटना मत। काट लिए, तो फिर किताब वापस नहीं लूंगा। लेकिन वे सौ पन्ने इतने अदभुत थे कि मुश्किल था कि आदमी बिना काटे बच जाए। मगर उसने तो बात साफ कर दी थी कि सौ पन्ने पढ़ लो। मुफ्त पढ़ लो। फिर आगे मत काटना। अपने पैसे वापस ले जाना। किताब लौटा देना।
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