Book Title: Jyo tha Tyo Thaharaya Author(s): Osho Rajnish Publisher: Osho Rajnish View full book textPage 1
________________ ज्यों था त्यों ठहराया स्वभाव में थिरता पहला प्रश्न: भगवान, आज प्रारंभ होने वाली प्रवचनमाला को जो शीर्षक मिला है, वह बहुत अनूठा और बेबूझ है--ज्यूं था त्यूं ठहराया! भगवान, हमें इस सूत्र का अर्थ समझाने की अनुकंपा करें। आनंद मैत्रेय! यह सूत्र निश्चय ही अनूठा है और बेबूझ है। इस सूत्र में धर्म का सारा सार आ गया है--सारे शास्त्रों का निचोड़। इस सूत्र के बाहर कुछ बचता नहीं। इस सूत्र को समझा, तो सब समझा। इस सूत्र को जीया, तो सब जीया। सूत्र का अर्थ होता है: जिसे पकड़ कर हम परमात्मा तक पहुंच जाएं। ऐसा ही यह सूत्र है। सूत्र के अर्थ में ही सूत्र है। सेतु बन सकता है--परमात्मा से जोड़ने वाला। यूं तो पतला है बहुत, धागे की तरह, लेकिन प्रेम का धागा कितना ही पतला हो, पर्याप्त है। ज्यूं था त्यूं ठहराया! मनुष्य स्वभाव से परमात्मा है, लेकिन स्वभाव से भटक गया। वह भटकाव भी अपरिहार्य था। बिना भटक के पता ही नहीं चलता कि स्वभाव क्या है। जैसे मछली को जब तक कोई पानी से बाहर न निकाल ले, तब तक उसे याद भी नहीं आती कि क्या है पानी का राज, कि पानी जीवन है। यह तो जब मछली तट की रेत पर तड़फती है, तभी अनुभव में आता है। सागर में ही रही, सागर में ही बड़ी हुई, तो सागर का बोध असंभव है। भटके बिना बोध नहीं होता। भटके बिना बुद्धत्व नहीं होता। इसलिए अपरिहार्य है भटकाव, लेकिन फिर भटकते ही नहीं रहना है! अनुभव में आ गया कि सागर है जीवन, तो फिर सागर की तलाश करनी है। धूप में तप्त रेत पर तड़फते ही नहीं रहना है। और हम सब तड़फ रहे हैं। हमारा जीवन सिवाय तड़फन के और क्या है--एक विषाद, एक संताप, एक चिंताओं का झमेला, एक दुख स्वप्नों का मेला! एक दुखस्वप्न छूट नहीं पाता कि दूसरा शुरू हो जाता है। कतार लगी है--अंतहीन कतार! कांटे ही कांटे--जैसे फूल यहां खिलते ही नहीं! दुख ही दुख! सुख की बस आशा। और आशा धीरे-धीरे निराशा बन जाती है। जब बहुत बार आशा हार जाती है। हर बार टूट जाती है, बिखर जाती है, तो स्वभावतः उम्र के ढलते-ढलते, सांझ आते-आते मनुष्य हताश हो जाता है, निराश हो जाता है। सूर्यास्त के साथ होते-होते उसके भीतर भी कुछ जीवन टूट जाता है, बिखर जाता है। मरने के पहले ही लोग मर जाते हैं। जीने के पहले ही लोग मर जाते हैं! जीते जी जान नहीं पाते जीवन क्या है। और कारण--इतना ही कि मछली तड़फती रहती है रेत पर; पास ही सागर है; एक छलांग की बात है। एक कदम से ज्यादा दूरी नहीं है। लेकिन अपनी तड़फन में ही ऐसी उलझ जाती है, याद भी आती है सागर की। वे सुख के दिन विस्मृत भी नहीं होते। इसीलिए तो आकांक्षा है आनंद की। Page 1 of 255 http://www.oshoworld.comPage Navigation
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