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ज्यों था त्यों ठहराया
हजार वर्षों से ऐसे महत चिंतकों को जन्म दिए हैं कि विज्ञान का जन्म न हो, यह बात समझ में नहीं आती। जब पश्चिम बिलकुल जंगली अवस्था में था, तब हमने सभ्यता के स्वर्ण शिखर छए हैं। और हम विज्ञान को जन्म न दे सके! कारण है--इस भ्रांत उपदेश में कि जगत मिथ्या है; जगत माया है।
और ऐसा नहीं कि मैं ही विरोध कर रहा हूं; महावीर ने भी विरोध किया है। असल में जिसके पास भी थोड़ी स्पष्ट दृष्टि है, वह यह कहेगा कि जगत को कैसे असत्य कह सकते हो। और अगर जगत असत्य है, तो हम सब असत्य हो गए। फिर हमारी धारणाएं और हमारे ध्यान भी असत्य हो गए। और हमारी समाधियां और समाधि के अनुभव भी असत्य हो गए! और फिर हमारा ब्रह्म कैसे सत्य होगा, जब हम ही सत्य नहीं हैं; जब हम ही झूठ हैं, तो झूठे लोगों का अनुभव कैसे सत्य होगा? मैं कहता हूं: जगत भी सत्य है, ब्रह्म भी सत्य है। जगत और ब्रह्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जगत बाहर--ब्रह्म भीतर। मगर अगर बाहर असत्य है, तो भीतर भी सत्य नहीं हो सकता। जरा सोचो। अगर बाहर तुम्हारे घर का सारा जगत असत्य है, तो तुम्हारे घर का भीतर कैसे सत्य हो सकता है? तुम्हारा घर ही नहीं टिक सकेगा; उसके लिए जमीन चाहिए, जिस पर टिके। वह जमीन बाहर होनी चाहिए। नहीं तो तुम्हारा घर अतल खड्ड में गिर जाएगा। पदार्थ उतना ही सत्य है जितना परमात्मा। शंकराचार्य की यह दृष्टि घातक सिद्ध हुई, भयानक अभिशाप सिद्ध हुई। इसका परिणाम यह हुआ, हमने जगत में उत्सुकता छोड़ दी। फिर हम रोते फिरते हैं, भीख मांगते फिरते हैं। कोई कारण न था भीख मांगने का, अगर हमने जगत की थोड़ी चिंता की होती। मगर चिंता क्यों करें, जब असत्य ही है तो! और बड़ा मजा यह है, शंकराचार्य भी भोजन करते हैं। शंकराचार्य भी लोगों को समझाने जाते हैं--जो कि असत्य हैं! शंकराचार्य विवाद के लिए सारे देश में घूमते हैं। किससे विवाद कर रहे हो? किस कारण विवाद कर रहे हो? वहां कोई है ही नहीं! नाहक अपने से ही बातचीत कर रहे हो! अपने को ही हरा रहे हो। यह शंकर-दिग्विजय की जो चर्चा करते हैं शंकर के मानने वाले, यह दिग्विजय किसकी? यह विजय-यात्रा किस पर? कोई दूसरा तो है नहीं, दूसरा तो असत्य है। फिर विवाद किससे है? मंडन मिश्र नहीं हैं, तो विवाद किससे कर रहे हो? जीत किसको रहे हो? हार कौन रहा
शंकराचार्य का पूरा जीवन तो कुछ और कह रहा है। शंकराचार्य ने जगत का त्याग किया; जो है ही नहीं, उसका त्याग किया जा सकता है? मैं पूछता यह हूं--जो है ही नहीं, उसका त्याग कैसे करोगे? कम से कम त्याग के लिए तो
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