Book Title: Jyo tha Tyo Thaharaya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 218
________________ ज्यों था त्यों ठहराया और चलाना बहुत मुश्किल है। मगर अंडे चला लेता हूं। यह मेरा जो कंपाउंडर है, चुपचाप ले आता है। मगर बाहर अभी भी वे दिगंबर जैन मंदिर में पूजा करते भी देखे जाते हैं। और अहिंसा परमोधर्म की तख्ती लगा रखी है उन्होंने अपने बैठकखाने में! इतना पाखंड सजा कर चलना पड़ता है। यहां मेरे पास सारी दुनिया से लोग आए हुए हैं। मैंने किसी को कहा नहीं कि मांसाहार छोड़ना। कभी कहंगा भी नहीं। लेकिन जो व्यक्ति भी ध्यान में उतरता है, उसे एक बात साफ होनी शुरू हो जाती है कि अपने जीभ के थोड़े से सुख के लिए किसी का जीवन लेना? बात ही मूर्खतापूर्ण मालूम पड़ने लगती है। गिर जाती है अपने से। मेरे पास जो लोग आए हैं, उनमें से अधिकतम लोग शराब पीने वाले लोग रहे हैं। क्योंकि पश्चिम में शराब ऐसी पी जाती है, जैसे यहां पानी पीया जाता है। शराब कोई पाप नहीं है दुनिया में। होनी भी नहीं चाहिए। शाकाहारी है। दूध से ज्यादा शाकाहारी है। अंगूर का ही रस है। फलाहार कहो! थोड़े सड़े हुए फलों का आहार है। मगर अपनी-अपनी मौज। किसी को सड़े फल अच्छे लगते हैं, तो क्या करोगे! ताजे अंगूर नहीं खाएंगे; सड़ा कर खाएंगे, तो शराब बन जाएगी। मगर दूध से तो ज्यादा सात्विक है। फिर यहां आ कर उनकी शराब अपने आप छूटने लगती है; अपने आप गिरने लगती है। क्योंकि ध्यान में जैसे-जैसे जाते हैं, एक बात समझ में आती है कि हम शराब क्यों पीते थे। पीते थे कि दुख भूल जाए। अब दुख ही नहीं बचा, तो भुलाना क्या है! और एक बात समझ में भी आती है कि अब आनंदित हो रहा है जीवन; प्रफुल्लित हो रहा है। शराब पीते हैं, तो आनंद भूल जाता है। आनंद को कौन भुलाना चाहता है! शराब का काम भुलाना है। दुखी हो, तो दुख को भुला देगी। आनंदित हो--आनंद को भुला देगी। मगर आनंद को कौन भूलना चाहता है! जो आनंद को नहीं भूलना चाहता, वह शराब पीना अपने आप बंद कर देगा। मैं किसी को कहता नहीं कि शराब पीना बंद करो। मैं किसी को कहता नहीं कि मांसाहार मत करो। इस तरह की टुच्ची और छोटी बातें मैं करता नहीं। मैं तो मूल बात दे देता हूं। फिर तुम्हारा जीवन है। दीया तुम्हें दे दिया, अब इसकी रोशनी में तुम्हें जहां जाना हो। दीवाल से टकराना हो--तो टकराओ। दरवाजे से निकालना हो--तो निकल जाओ। इतना मेरा जानना है कि जिसके हाथ में दीया है, वह दरवाजे से निकलता है--दीवालों से नहीं टकराता। और जिसके हाथ में दीया नहीं है, उससे तुम लाख कहो कि दीवालों से मत टकराना। वह टकराएगा। संन्यास भी लो--ध्यान भी करो। और विवाह से कुछ विरोध नहीं है। विवाह में कुछ बुरा नहीं है। और ध्यानी अगर विवाह करे, तो उसके विवाह में भी एक सुगंध होती है। क्योंकि उसके विवाह में भी बंधन नहीं होता; स्वतंत्रता होती है। उसके प्रेम से प्रार्थना पैदा होने लगती है। उसके संभोग से भी समाधि की गंध आने लगती है, सुगंध आने लगती है। Page 218 of 255 http://www.oshoworld.com

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