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ज्यों था त्यों ठहराया
बुद्धत्व और पांडित्य
पहला प्रश्न: भगवान, किसी को चैन से देखा न दुनिया में कभी मैंने। इसी हसरत में कर दी खतम सारी जिंदगी मैंने।। कहते हैं लोग मौत से भी बदतर हैं इंतिजार। बस राह देखते ही गुजारी जिंदगी मैंने।। उठाए क्यों लिए जाते हो मुझको बागे-दुनिया से। नहीं देखी है दिल भर के बहारे जिंदगी मैंने।। लोग घबरा कर यूं ही कह देते हैं कि मर जाएं। मर के भी लेकिन सुकू पाते नहीं देखा मैंने।। जब ये आसी उठाएंगे फिरदौस में जाम। मय बदल जाएगी पानी में सुना है मैंने।। आग दोजख की भी अर्क ए शर्म से बुझ जाएगी। परेशां आदमी को देख ये न सोचा मैंने।। सब तरफ कळ तमन्नाओं की बनी हैं यहां। एक बस्ती को भी बसते नहीं देखा मैंने।। इस जहां में तू कैसे बेपिए मदहोश रहता है? ऐ साकी! आज तक देखा न तुझसा आदमी मैंने।। बता तू कौन है इंसान या कोई फरिश्ता है? या देखा है खुदा को ख्वाब में बना आदमी मैंने।।
अमृत प्रिया! जन्म के साथ जीवन नहीं मिलता; जन्म के साथ जीवन की केवल संभावना मिलती है। उस संभावना को वास्तविक बनाए बिना न कोई आनंद है, न कोई सुगंध है; न फूल खिलते हैं, न वसंत आता है, न पक्षी गीत गाते हैं; न सुबह होती है, न आत्मा के आकाश में तारों की चमक! कुछ भी नहीं! अंधेरा ही अंधेरा उदासी ही उदासी।। लेकिन हम इस भ्रांति में ही जीते हैं कि जन्म पा लिया, तो जीवन पा लिया। जैसे कोई बीज को लिए बैठा रहे--बैठा रहे--बैठा रहे--तो बीज में न तो सुगंध होगी, न फूल खिलेंगे। और उदास होगा वैसा आदमी। हालांकि बीज में फूल भी छिपे हैं, सुगंध भी छिपी है। मगर जो छिपा है, उसे प्रकट करना होगा। जो अव्यक्त है, उसे व्यक्त करना होगा। जो संभावित है, उसे वास्तविक करना होगा। जो स्वप्न है, उसे सत्य करना होगा। इतने लोग हैं पृथ्वी पर और इतनी गहन उदासी है। कारण एक है, छोटा-सा है: जन्म को जीवन का पर्याय समझ लिया है। जन्म के साथ तो अवसर मिलता है जीवित होने का;
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