Book Title: Jyo tha Tyo Thaharaya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 211
________________ जब तीन महीने बाद वापस लौटे, करे ! एकदम चले आए धड़ल्ले से कर रहे हैं। ज्यों था त्यों ठहराया तो तार वगैरह देने में चंदूलाल मानते नहीं। कौन खर्चा भीतर पहुंच गए। देखा तो ब्रह्मचारी मटकानाथ पत्नी से प्रेम आग-बबूला हो गए चंदूलाल पत्नी की गर्दन पकड़ ली और कहा कि बस, नाता-रिश्ता खतम । गोली मार दूंगा। यह सीता सावित्री का देश और यह तेरा व्यवहार। यह धोखेबाजी ! और कसम खाई थी तूने, जब गया था मैं कलकत्ता, कि धोखा नहीं देगी ! पत्नी तो घबड़ा गई। कुछ बोल न निकला! घिग्घी बंध गई। और तभी चंदूलाल स्वामी जी की तरफ मुड़ा और कहा कि स्वामी जी, हे भूतपूर्व गुरुदेव ! कम से कम इतना शिष्टाचार तो बरतो कि जब मैं अपनी पत्नी से बात कर रहा हूं, तब तो तुम कम से कम यह डंड-बैठक लगाना बंद कर दो! तुम प्रेम ही किए जा रहे हो मैं उसकी गर्दन दबा रहा हूं! तुम यह भी नहीं फिक्र कर रहे कि मैं मौजूद हूं। कम से कम अभी तो रुक जाओ! मगर दमित लोग। मौका पा जाएं, तो रुक नहीं सकते। लंगोट के पक्के लोग खतरनाक । इनसे जरा सावधान रहना । और सदियों से यह होता रहा है। तुम्हारे सारे पुराण इन कथाओं से भरे हैं। तुम्हारे ऋषि-मुनि इसी तरह के जीवन जीए हैं। तुम्हारे देवता भी आकाश से उतर आते हैं। उनके पास सुंदर उर्वशियां हैं, मेनकाएं हैं, उनसे भी ऊब जाते हैं जमीन पर आ जाते हैं। किसी ऋषि-मुनि की पत्नी को धोखा दे जाते हैं किसी ऋषि-मुनि की पत्नी के साथ व्यभिचार कर जाते हैं। यह तुम्हारी सनातन परंपरा है। यह तुम्हारा सनातन धर्म है। यह धोखाधड़ी इसलिए पैदा होती है कि मौलिक रूप से हम किसी आत्मिक क्रांति से तो गुजरते नहीं; बस, ऊपर से आरोपण कर लेते हैं। -- अब तुम्हारे स्वामी तुम से कह गए हैं कि अपने पास केवल तीन ही वस्त्र रखो और कुछ संग्रह न करो। संग्रह का संबंध कितनी चीजें तुम रखते हो, इससे नहीं है। तुम्हारा तीन से इतना मोह हो सकता है, जितना किसी का अपने पूरे साम्राज्य से न हों। जनक के जीवन में यह प्यारी कथा है एक संन्यासी उसके गुरु के द्वार भेजा गया कि जा, अंतिम शिक्षा तू जनक से ग्रहण कर उसे तो बहुत दुख हुआ। गुरु ने कहा था, इसलिए बेमन से आया। दुख इसलिए हुआ कि मैं संन्यासी, और इस भोगी सम्राट से, जो धन, यश, पद-प्रतिष्ठा की दौड़ में लगा है--इससे शिक्षा लेने जाऊं ! मगर गुरु ने कहा, तो मजबूरी थी, तो गया। और जब पहुंचा जनक के दरबार में, तो और दंग रह गया। वहां महफिल जमी थी। शराब चल रही थी। नृत्य हो रहा था। जनक बीच में बैठे थे। दरबारी मस्त हो कर डाले रहे थे। जाम पर जाम चल रहे थे। जाम चलने लगे दिल मचलने लगे बाद मुद्दत वो महफिल में क्या आ गए। जैसे गुलशन में बहार आ गई बज्म लहरा गई! Page 211 of 255 http://www.oshoworld.com

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