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ज्यों था त्यों ठहराया
पुनः भाव करें। खींचे नहीं। खींचेंगे, तो मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि खींचने से सिद्ध होगा नहीं खुलते हैं। नहीं खुलते हैं--तो नहीं खुलने की बात और मजबूत होती चली जाएगी कि नहीं खुल सकते हैं। अब मैं कुछ भी करूं, नहीं खुल सकते हैं। खींचें न। अब तो बैठ कर सोचें वही, जो पहले सोचा था उससे उलटा, कि अब मैं जब खोलूंगा दस मिनट के बाद, तो बराबर खुल जाएंगे; निश्चित खुल जाएंगे। कोई संदेह नहीं; खुल जाएंगे। तब इनके दस मिनट के बाद हाथ खुलेंगे। तुम प्रयोग करके देख सकते हो। दस मित्रों को इकट्ठा कर के बैठ जाओ। तुमने शायद कभी सोचा न हो कि तुम भी उन तेतीस प्रतिशत में एक हो सकते हो। इस तरह का आदमी किसी भी तरह की बीमारियों के जाल में फंस सकता है। मेडिकल कालेजेज में यह अनुभव की बात है कि विद्यार्थी जिस बीमारी के संबंध में पढ़ते हैं, बहुत से विद्यार्थियों को वही बीमारी होनी शुरू हो जाती है। जब वे पेट-दर्द के संबंध में पढ़ेंगे
और उनको मरीजों के पेट-दर्द दिखाए जाएंगे, और उनसे पेट की जांच करवाई जाएगी-- अनेक विद्यार्थियों के पेट गड़बड़ हो जाएंगे। वे कल्पित करने लगते हैं कि अरे, कहीं वैसा ही दर्द मुझे तो नहीं हो रहा है! अपना ही पेट दबा-दबा कर देखने लगते हैं। और जब पेट को दबाएंगे, तो कहीं न कहीं दर्द हो जाएगा। अहसास होगा कि दर्द हो रहा है। घबड़ाहट शुरू हो जाएगी। मेडिकल कालेज में यह आम अनुभव की बात है कि जो बीमारी पढ़ाई जाती है, वही बीमारी फैलनी शुरू हो जाती है विद्यार्थियों में। सूफियों में एक कहानी है: जुन्नैद नाम का फकीर...| जुन्नैद प्रसिद्ध फकीर मंसूर का गुरु था गांव के बाहर एक झोपड़े में रहता था, बगदाद के बाहर। कहानी बड़ी प्यारी है। कहानी ही है, ऐतिहासिक तो हो नहीं सकती, मगर बड़ी मनोवैज्ञानिक है। एक दिन उसने देखा कि एक काली छाया बड़ी तेजी से बगदाद में जा रही है। दरवाजे के बाहर ही उसका झोपड़ा था नगर के। उसने कहा, रुक! कौन है तू? तो उस काली छाया ने कहा, मैं मौत हूं। और क्षमा करें, बगदाद में मुझे पांच सौ व्यक्ति मारने हैं। फकीर ने कहा, जो उसकी मर्जी। मौत अंदर चली गई। पंद्रह दिन के भीतर पांच सौ नहीं, पांच हजार आदमी मर गए! फकीर बड़ा हैरान हुआ कि पांच सौ कहे थे और पांच हजार मर चुके! जब मौत वापस लौटी पंद्रह दिन के बाद, तो उसने कहा, रुक। बेईमान! मुझसे झूठ बोलने की क्या जरूरत थी! कहां पांच सौ, और मार डाले पांच हजार! उसने कहा, क्षमा करें। मैंने पांच सौ ही मारे। बाकी साढ़े चार हजार अपने आप मर गए। मैंने नहीं मारे। वे तो दूसरों को मरते देख कर मर गए! जब महामारी फैलती है, तो सभी लोग महामारी से नहीं मरते। कुछ तो देख कर ही मर जाते हैं! इतने लोग मर रहे हैं, मैं कैसे बच सकता हूं! इतने लोग बीमार पड़ रहे हैं, मैं कैसे बच सकता हूं!
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