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ज्यों था त्यों ठहराया
पर जीता है; अतीत उसका भोजन है, उसका पोषण है। और मैं कहता हूं--अतीत से बिलकुल छुटकारा पा जाओ। उसमें कम्मू बाबा भी आ जाएंगे।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कम्मू बाबा सिद्धपुरुष नहीं थे। इससे कुछ लेना-देना नहीं है तुम्हें। सिद्धपुरुष थे, तो क्या करोगे! सिद्धपुरुष नहीं थे, तो क्या करोगे! जो भी थे--गए उस पार। इस पार अब नाव नहीं है। अभी मेरी नाव इस पर है। बैठना हो--बैठ जाओ। कल चली जाएगी, फिर पछताओगे, फिर रोओगे! फिर यह द्वंद्व खड़ा होगा कि मैंने यह क्या किया! मैं बैठ क्यों न गया इस नाव में? इतना प्रभावित था। तब फिर तुम किसी से पूछोगे जा कर कि अब और एक मुश्किल से गई। दो आदमियों से प्रभावित था--एक कम्मू बाबा, और एक मैं। और अब तीसरे को कैसे चुनना! दो को चुना नहीं--अब तीसरे को कैसे चुनना? यूं ही तुम जिंदगी भर भटकते रहोगे। माझी अपनी नावें उस पार ले जाते रहेंगे, तुम इसी पार अटके रहोगे। इतना मैं तुमसे कह सकता हूं कि संन्यास अपूर्व कीमिया है--अहंकार के विसर्जन की, अतीत के विसर्जन की, नव जन्म की। साहस हो, तो डूब जाओ। और कोई बहाने न खोजो। जरूर कम्मू बाबा ने तुम्हें जो कलाम दिया था, उसकी वजह से ही तुम मेरे पास आ गए होओगे। प्रत्येक सदगुरु अपने शिष्यों के लिए इंतजाम कर जाता है। अगर न बैठ पाएं उसकी नाव में, चूक जाएं, भटक जाएं, समय पर न पहुंच पाएं, देर-अबेर कर दें--तो यूं न हो कि पीछे उनके लिए कोई उपाय न रह जाए। इतनी सूझ तो दे जाता है, इतना बोध दे जाता है कि वे फिर किसी और को पहचान लेंगे; किसी और माझी को पहचान लेंगे। द्वंद्व छोड़ो। लेकिन डर कुछ और होगा। डर मेरे हिसाब में यह है कि मां से तुम डरे हए हो। मां दुखी न हो जाए!... अब देखा, संत महाराज की तीन दिन से मैं बात कर रहा था। कल उनकी बहन ने, पिंकी ने संन्यास लेने का तय कर लिया। उनके पिता यहां मेरे सामने बैठे रो रहे थे। आंसू की धार लगी हुई थी। और संत से उन्होंने कहा भी कि अब अमृतसर जाने की कोई इच्छा नहीं होती। वहां दुख ही दुख है। अब यहीं रुक जाने का मन होता है। संत ने कहा, कौन कहता है जाओ। रुक जाओ। जिंदगी तो रह लिए वहां। और अब अमृतसर में है क्या! अमृत यहां है--सर वहां है! अब क्या करोगे अमृतसर में रह कर? रुक जाओ। तब तक सब ठीक था। तभी उनकी बेटी ने पिंकी ने आकर पूछा कि मैं संन्यास ले लूं! बस, सब तिरोहित हो गया भाव। उसका हाथ पकड़ा। घसीट कर उसको जबर्दस्ती रिक्शे में डाल लिया। भीड़ भी लग गई। लोगों ने समझाया भी कि यह क्या कर रहे हैं! संत ने भी कहा कि वह चौबीस साल की है, यह क्या कर रहे हैं? मगर वे तो फिर भूल ही गए उस क्रोध में कि यह मेरी चीज है!...लड़की तुम्हारी चीज है? चीज? आदमी को चीज कहते हमें शर्म भी नहीं आती। आत्मा को चीज बना देते हैं! मगर
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