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ज्यों था त्यों ठहराया
नहीं; सदगुरु यह नहीं करता। सदगुरु का यह काम ही नहीं है। सदगुरु का काम इतना है कि तुम्हारी मुक्ति होनी चाहिए। तुम्हारे जीवन में सौभाग्य का उदय होना चाहिए। कहां से होता है, किस बहाने होता है- इस पर अटकेगा सदगुरु ?
सूफी कलाम से होता है; कि ध्यान से होता है; मेरे पास होता है --कि किसी और के पास अगर मैंने तुम्हें प्रेम दिया है, -
होता है इससे क्या फर्क पड़ता है। अगर मैं तुम्हें चाहता हूं, तो मैं यही चाहूंगा कि तुम मुक्त हो जाओ किसी भी बहाने जाना है--किस नाव में बैठते हो, किसकी नाव में बैठते हो, पड़ता है!
सही! सब बहाने हैं उस पार कौन माझी है इससे क्या फर्क
उस पार जाना है। और अगर तुम अभी इसी पार हो, और तुम्हारे गुरु उस पार चले गए, तो किसी नाव में बैठना पड़ेगा। अब वह नाव काम नहीं आएगी। अब वह सूफी कलाम तुम्हारे काम नहीं आएगा।
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वह सूफी कलाम इतना ही अगर कर गया कि फिर तुम किसी और गुरु को पहचान लो, तो पर्यास है। बहुत है। इतना काम हो गया। धन्यवाद दो कि उसने तुम्हें इतनी दृष्टि दे दी उसने तुम्हें इतना बोध दे दिया कि तुम अब माझी को पहचान सकते हो; कि तुम नाव पहचान सकते हो। इतनी तुम्हें आंख दे दी ।
इसमें द्वंद्व की कोई संभावना नहीं है अजयकृष्ण लखनपाल !
तुम पूछते हो, मैं कुछ समय से आपसे बहुत अधिक प्रभावित हूं। परंतु सोचता हूं कि यदि मैंने आपसे संन्यास लिया...! और संन्यास क्या मुझसे लिया जाता है? या किसी और से लिया जाता है? ये सब तो बहाने हैं।
जैसे हम खूंटी पर कोट को टांग देते हैं। अब किसी खूंटी पर कोट को टांगते हैं--इससे क्या फर्क पड़ता है। कोट टांगना है। खूंटी न मिले, तो खीली पर भी टांग देते हैं। और खीली न मिले, तो दरवाजे पर भी टांग देते हैं। टांगना है। कुछ न मिले, तो कुर्सी पर ही रख देते हैं। कहीं न कहीं टांगना है। सवाल है कोट को टांगना !
अर्थ है- अहंकार को समर्पित करना किसी भी बहाने कर दो।
संन्यास का इतना ही अहंकार एक झूठ है लेकिन तुमसे छूटता नहीं तो सदगुरु कहता है- लाओ, मुझे दे दो। तुमसे छूटते नहीं मुझे दे दो! चलो यह भेंट मुझे चढ़ा दो यह बीमारी मुझे दे दो। तुमसे नहीं छूटता। तुम समझते हो हीरे-जवाहरात हैं। तो चलो, मैं लिए लेता हूं। है तो कुछ भी नहीं; खाली हवा है। हवा से फूला गुब्बारा है।
संन्यास का इतना ही अर्थ होता है-- अहंकार का समर्पण। इसमें क्या मेरा - और क्या तेरा ! मैं तो सिर्फ एक निमित हूं। यहां छोड़ दो या कहीं और छोड़ देना। जहां मौज आ जाए, वहां छोड़ देना। मगर इतना ध्यान रखो... ।
तुम कहते जरूर हो कि तुम्हारी अंतरात्मा मानती है कि वे प्रबुद्ध संत थे। मगर जानती नहीं- मानती ही होगी। अगर तुम जानते होते, तो यह द्वंद्व उठता ही नहीं। तुम तत्क्षण मुझे
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