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ज्यों था त्यों ठहराया
आज इतना ही। सातवां प्रवचन; दिनांक १७ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
इक साधे सब सधै
पहला प्रश्न: भगवान, योगवासिष्ठ में यह श्लोक है: न यथा यतने नित्यं यदभावयति यन्मयः। यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति नान्यथा।। मनुष्य नित्य जैसा यत्न करता है, तन्मय हो कर जैसी भावना करता है, और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है; अन्यथा नहीं। भगवान, क्या ऐसा ही है?
सहजानंद! ऐसा जरा भी नहीं है। यह सूत्र आत्मसम्मोहन का सूत्र है--आत्मजागरण का नहीं। कुछ होना नहीं है। जो तुम हो उसे आविष्कृत करना है। कोहिनूर को कोहिनूर नहीं होना है, सिर्फ उघड़ना है। कोहिनूर तो है। जौहरी की सारी चेष्टा कोहिनूर को निखारने की है--बनाने की नहीं। कोहिनूर पर परतें जम गई होंगी--मिट्टी की उन्हें धोना है। कोहिनूर को चमक देनी है, पहलू देने हैं। जब कोहिनूर पाया गया था, तो आज जितना वजन है, उससे तीन गुना ज्यादा था। फिर उस पर पहलू देने में, काटने-छांटने में, जो व्यर्थ था उसे अलग करने में, और जो सार्थक था, उसे बचाने में, केवल एक तिहाई बचा है। लेकिन जब पाया गया था, उसका जो मूल्य था, उससे आज करोड़ों गुना ज्यादा मूल्य है। वजन तो कम हुआ--मूल्य बढ़ा। तुम जो हो, उसका आविष्कार करना है। और यह सूत्र कुछ और ही बात कह रहा है। यह सूत्र आत्मसम्मोहन का, आटोहिप्नोसिस का सूत्र है। यह सूत्र कह रहा है, मनुष्य नित्य जैसा यत्न करता है, तन्मय हो कर जैसी भावना करता है, और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है अन्यथा नहीं। तुम अगर भाव करोगे कुछ होने का, सतत करोगे भाव, तो उस भाव से तुम आच्छादित हो जाओगे। आच्छादन इतना महान हो सकता है कि भ्रांति होने लगे कि मैं यही हो गया। एक सूफी फकीर को मेरे पास लाया गया था। तीस वर्ष की सतत साधना! फकीर के शिष्यों ने मुझे कहा कि उन्हें प्रत्येक जगह ईश्वर दिखाई पड़ता है। वृक्षों में, पत्थरों में, चट्टानों में--सब तरफ ईश्वर का ही दर्शन होता है। मैंने कहा, उन्हें ले आओ। तीन दिन मेरे पास छोड़ दो।
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