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जज्यों की तिस्मार इमारत
सांसों की बेजार खंडहर जाने क्यों बैठे हैं तन्हा हम ऐसे वीराने में।
कया- क्या रूप लिए रिश्तों ने
जाने क्या-क्या रंग भरे
अब तो फर्क नहीं लगता है अपनों और बेगानों में।
इस दुनिया में आकर हमने ।
कुछ ऐसा दस्तूर सुना
अक्ल की बातें करने वाले
होंगे पागलखाने में।
यहां तो बातें अक्ल की हो रही हैं। यहां तो बातें साधारण जीवन की नहीं हैं; परम जीवन की हैं। सरल चित व्यक्ति साहस कर सकते हैं, हिम्मत कर सकते हैं, छलांग लगा सकते हैं। इस पर निर्भर करता है सब, कि पुरानी आदतों को ही तो नजर में नहीं रखेंगे। जो बीत गया वह बीत गया!
जाने कितना जीवन पीछे
छूट गया अनजाने में!
तो जो भूलें हो गई हो गई जो गया गया और सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए, तो भूला नहीं कहा जाता।
अब तो कुछ कतरे हैं बाकी
सांसों के पैमाने में!
ज्यों था त्यों ठहराया
तो जब कुछ कतरे ही बाकी रह जाते हैं, सांसों के पैमाने में, तो अगर मौत पर नजर आ जाए, अगर मृत्यु का खयाल आ जाए, तो क्रांति हो जाती है। मगर तुम जल्दी मत करना । तुम्हारी जल्दी बाधा बन सकती है। आए हैं यहां अपने आनंद में उन्हें भागीदार बनाओ। यहां जो नृत्य चल रहा है, उसमें उन्हें निमंत्रित करो यहां जो शराब ढल रही है, उसे उन्हें पीने दो। फिर अपने से घट जाती है बात।
लग जाएगा रंग। यहां से वही नहीं जाएंगे, जैसे आए थे। अब यह बात और है कि इस बार डूबें कि अगली बार डूबें। यह उन पर छोड़ दो। जरा भी खींचतान मत करना। क्योंकि बड़ी कठिनाई है।
नाते-रिश्ते बड़ी नाजुक बातें हैं। अगर पति कोशिश करे कि पत्नी संन्यासिनी हो जाए, तो वह अकड़ जाती है, क्योंकि उसके अहंकार को चोट लगती है। अगर पत्नी कोशिश करे कि पति संन्यासी हो जाए पति अकड़ जाता है उसके अहंकार को चोट लगती है और बेटा अगर कोशिश करे कि बाप और मां संन्यासी हो जाएं, तब तो और भी अड़चन आ जाती है,
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