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ज्यों था त्यों ठहराया
कह दूंगा--प्रशंसा के दो शब्द--वहीं ठहर जाएगा यह। उससे आगे न बढ़ सकेगा। सोचेगा--बात पूरी हो गई। जब गुरु ने प्रशंसा कर दी, तो अब और क्या बचा! जब अवनींद्रनाथ ने कह दिया, तो अब और क्या बचा! अवनींद्रनाथ उठे। जो चित्र फेंक दिया था, वह उठाकर वापस लाए। और कहा कि चित्र अदभुत है। मगर अभी और भी नंदलाल में पड़ा है। अभी मैं न कहूंगा कि अदभुत है। उसके सामने तो न कहूंगा। अभी तो उस पर और चोटें करनी हैं। अभी इसका जल और भी निखर सकता है। अभी इसमें और गहराई आएगी! अभी इसमें और ऊंचाई आएगी। और अजीब बात यह हुई कि नंदलाल अपने दरवाजे पर ताला लगा कर, जिस छोटे से झोपड़े में रहते थे, तीन साल के लिए नदारद हो गए! रवींद्रनाथ ने बार-बार अवनींद्रनाथ को कहा कि अब कहो! क्या यह चोट मारने जैसी थी? उसका दिल ही तोड़ दिया! अवनींद्रनाथ ने कहा, तुम ठहरो। वह लौटेगा। वह शिष्य है--विद्यार्थी नहीं। लौटेगा। निश्चित लौटेगा!
और तीन साल बाद नंदलाल लौटे। उनकी हालत बंगाल के पटियों जैसी हो रही थी--बिलकुल गरीब! कपड़े फट गए थे। वे ही कपड़े थे जो वे तीन साल पहले पहने थे। और आकर अवनींद्रनाथ के चरणों पर गिर पड़े और कहा कि आपने बड़ी कृपा की, जो उस दिन मेरे चित्र को उठा कर फेंक दिया। बंगाल के गांव-गांव में गया। जहां भी किसी पटिये की खबर सुनी, उससे जा कर सीखा, कि जब गुरु ने कहा है कि पटिये भी तुमसे अच्छा चित्र बना लेते हैं--तो जरूर बना लेते होंगे। और इन तीन सालों में इतना जना, इतना जीया, इतने अनुभव हुए! आपने क्या चोट मारी कि गदगद हो गया हूं! अवनींद्रनाथ ने छाती से लगा लिया और कहा कि अब तुझसे सच बात कह सकता हूं। वह चित्र सुंदर था। देख! भीतर देख! तेरा चित्र मेरी दीवाल पर टंगा है। जहां मेरा चित्र कृष्ण का टंगा था, वह मैंने अलग कर दिया है। वहां तेरा चित्र टांग दिया है। तेरा चित्र मेरे चित्रों से ज्यादा सुंदर है। लेकिन एक बार आखिरी चोट मारनी थी। अब मैं देख सकता हूं तेरी आंखों में; अब मैं देख सकता हूं तेरे आसपास की आभा में--वह घटना घट गई, जिसकी मैं प्रतीक्षा कर रहा था। अब मैं निश्चिंत मर सकता हूं कि मैंने कम से कम एक चित्रकार को जन्म दे दिया है। इतना बहुत। तू मेरी धारा को आगे बढ़ा सकेगा। तू मेरा भविष्य है। तेरे ऊपर सब निर्भर है। यह जो मैंने कला को एक नया मोड़ दिया है, तू उसका वसीयतदार हुआ। तब रवींद्रनाथ समझे कि गुरु चोट करता है, तो किसलिए चोट करता है। योगतीर्थ! तुम धन्यभागी हो। ऐसे ही समझते चले, तो निखार आएगा--बहुत निखार आएगा। नहीं तो हम तिलमिला जाते हैं। हम बड़े जल्दी तिलमिला जाते हैं। संत ने कल ही मुझे खबर की कि परसों आप बोले, तो मेरे पिता गदगद हो गए। उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे। और कल आप बोले, तो वे बड़े गुस्से में आ गए। बड़े क्रोधित हो गए। एकदम तिलमिला गए!
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