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ज्यों था त्यों ठहराया
लेकिन हमारी आदतें दायरों में सोचने की हैं। और हम हर चीज का दायरा बना देते हैं, इससे मुश्किल खड़ी हो जाती है। इससे हमने धर्म को भी भ्रष्ट कर लिया है। कुछ तो बचने दो, जिसकी कोई सीमा न हो। यह मेरा कम्यून, न तो हिंदू है, न मुसलमान है; न ईसाई है, न सिक्ख है; न जैन है, न बौद्ध है। और एक अर्थ में यह सभी है--एक साथ है। यहां एक समन्वय घटित हो रहा है। इसलिए यहां सूफी नृत्य में कोई अड़चन नहीं है--श्री राम, जय राम, जय जय राम की धुन गाई जा सकती है। कोई अड़चन नहीं है। फर्क ही क्या पड़ता है--तुम अल्लाह कहो कि राम कहो। सूफी का अर्थ है: तुम स्वच्छ हो जाओ। अब गंगा में नहा कर स्वच्छ हुए, कि नर्मदा में नहा कर स्वच्छ हुए, कि अमेजान में नहा कर स्वच्छ हुए--क्या फर्क पड़ता है! कौन नदी थी, कौन घाट थी--स्वच्छ हो जाओ--तुम सूफी हो गए। ये मेरे सारे संन्यासी सूफी हैं। हालांकि सूफी फकीर जो मुसलमान की धारा में पैदा हुए हैं, हरे वस्त्र पहनते हैं। मेरे संन्यासी गैरिक वस्त्र पहनते हैं। मगर इससे क्या फर्क पड़ जाएगा! क्या हृदय का कुछ भेद हो जाएगा! कुछ अंतर नहीं पड़ता। लेकिन हम खिलौने में उलझ गए हैं। हम छोटी-छोटी बातों में उलझ गए हैं। देखते-ही-देखते कितने बदल जाते हैं लोग, हर कदम पर इक नए सांचे में ढल जाते हैं लोग, कीजिए किस के लिए गुम गश्ता जन्नत की तलाश? जब कि माटी के खिलौने से बहल जाते हैं लोग। माटी के खिलौनों से! कोई मूर्ति को पूज रहा है--फंस गया। पूजा मूल्यवान न रही; मूर्ति मूल्यवान हो गई। और जब मूर्ति मूल्यवान हो जाती है, तो स्वभावतः मसजिद मंदिर नहीं हो सकती। और अगर पूजा मूल्यवान हो, तो फिर मसजिद में भी हो सकती है, मंदिर में भी हो सकती है। फिर कोई अड़चन नहीं है। झुकना मूल्यवान है। अमूर्त के सामने झुको मूर्त के सामने झुको--कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर हमारे जाल बहुत हैं! मैं अमृतसर में मेहमान था। स्वर्ण-मंदिर के ट्रस्टियों ने मुझे निमंत्रण दिया कि मैं अमृतसर आया हूं, तो स्वर्ण-मंदिर जरूर आऊं। मैं गया। जब मंदिर में प्रवेश कर रहा था, तो मैंने देखा कि सारे ट्रस्टी मुझे बड़े प्रेम से स्वागत करने आए थे; वे जरा बेचैन हैं। कुछ मेरी समझ में न आया। मैंने पूछा, बेचैनी का कारण क्या है? उन्होंने कहा, आपसे कहें, अच्छा नहीं मालूम होता। न कहें, तो भी मुश्किल है! मैंने कहा, तुम कह ही दो। अच्छे-बुरे की फिक्र छोड़ो। मैं फिक्र ही नहीं करता--अच्छे बुरे की। तुम कह दो। मगर बेचैनी नहीं रखनी चाहिए। उन्होंने कहा कि मजबूरी है। क्षमा करें। लेकिन आप नंगे सिर स्वर्ण-मंदिर में न जा सकेंगे। हमने आप को निमंत्रण दिया, अब मेहमान को हम क्या कहें! कम से कम टोपी लगा लें। टोपी न लगाएं, तो...एक मित्र ने जल्दी से रूमाल निकाल कर कहा कि रूमाल ही बांध लें।
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