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ज्यों था त्यों ठहराया
ये दो उपदेश वे देती ही रही--अंतिम समय तक! उनकी नजरों में स्वभावतः मैं सदा बच्चा ही रहा। और यह स्वाभाविक भी है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं। तो तुम्हारे मां-बाप को यहां सुविधा दो। यहां ध्यान में लाओ। यहां धीरे से उनको छोड़ दो।
और हट गए छोड़ कर। तुम खड़े रहोगे, तो वे ध्यान भी न करेंगे--कि बेटा देख रहा है--कैसे नाचें! बेटा देख रहा है--कैसे गाएं! क्या कहेगा यह--कि हमारे मां-बाप को क्या हुआ! सो ये भी होने लगे! ये भी पगलाने लगे! अब यह तो पगला ही गया है! तुम उनको छोड़ दिए ध्यान में। तुम हट गए--बिलकुल हट गए वहां से, ताकि वे मुक्त भाव से, सरलता से सम्मिलित हो सकें। सीधे-सादे लोग हैं--यह मेरे खयाल में है। और जब यहां आ गए हैं, तो मुझ पर छोड़ दे। यहां रंग लग ही जाएगा। यहां आकर और बच जाना मुश्किल है। यहां होली हो रही है। यहां गुलाल उड़ रही है। यहां दीए जल रहे हैं। दीवाली है। दिन होली--रात दीवाली! कैसे जाएंगे बच कर! मगर अगर तुमने जोर डाला, तो द्वार बंद हो जाएंगे। तुम द्वार से हट जाओ। मैं निपट लूंगा। मैं जानता हूं--किस में कैसे प्रवेश करना। डेढ़ लाख संन्यासी ऐसे ही नहीं हो गए हैं! उसकी भी कला होती है। कोई बुद्ध हुआ क्या जैसे, मुझमें कुछ संबुद्ध हो गया कोई मुक्त हुआ क्या जैसे, मुझमें ही कुछ मुक्त हो गया जब किसी बुद्ध के पास बैठोगे, तुम्हारे भीतर कुछ होने ही लगेगा। कोई घंटियां बजने लगेंगी हृदय में। कोई गीत उठने लगेगा। कोई गंध फैलने लगेगी। कोई बुद्ध हुआ क्या जैसे, मुझमें कुछ संबुद्ध हो गया कोई मुक्त हुआ क्या जैसे, मुझमें ही कुछ मुक्त हो गया मैं अपनी सीमित बाहों में, बांधे हूं आकाश असीमित मैं अपनी नन्हीं चाहों में, साधे हुए विराट अपरिमित कोई शुभ संकल्प जगे तो, मेरे प्राण चहक उठते हैं मेरा अणु व्यक्तित्व, मगर लगता मुझमें अस्तित्व समाहित कोई पंछी उड़े गगन में, जैसे मैं ही उर्दू अबाधित कहीं मिले जीवन को उत्सव, वह मुझसे संयुक्त हो गया इस व्यापक संसृति-सागर में, अलग-थलग है लहर न कोई इस फैले चेतन-कानन में पादप कोई नहीं अकेला सुख-दुख के ताने-बाने में सब सबसे अंतर्गुम्फित हैं मुझमें ही होती सब हलचल, मुझमें ही लगता सब मेला हर पनघट मेरा पनघट है, हर गागर मेरी गागर है ले कोई भी स्वाद अमृत का, समझो मैं सम्युक्त हो गया कोई खुशी नहीं अपनी भर, कोई पीड़ा नहीं पराई
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