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ज्यों था त्यों ठहराया
टकराएगा। उसकी लकड़ी खट-खट कर के चारों तरफ ठोंक-पीट कर जांच करेगा, तब चलेगा। नहीं तो वह हाथ-पैर तोड़ लेगा अपने। लेकिन जिसके पास आंख हैं, उससे तुम नहीं कहते कि फर्नीचर से मत टकराना। तुम जानते हो, उसके पास आंख हैं; उसे दरवाजा दिखाई पड़ता है, वह दरवाजे से निकल जाएगा।
ध्यान भीतर की आंख को खोल देता है। बाहर की शिक्षा, अंधे को दी गई शिक्षा है।
पाप न करो। अभी तुम्हें पता ही नहीं कि पाप क्या है। पाप जानोगे कैसे? आंख कहां? अभी पुण्य क्या है ? पाप क्या है? इसलिए बड़ा उलटा काम चलता रहता है।
पुण्य के नाम से तीर्थयात्रा कर आते हो। गंगा नहीं आए। हज यात्रा कर आए। सौ-सौ चूहे खाय के बिल्ली चली हज को और फिर लौटती है, तो हाजी हो जाती है। हाजी मस्तान! छोटी-मोटी हाजी नहीं। मुंह में राम बगल में छुरी! दोनों साथ-साथ चलेंगे। राम-राम भी करते रहोगे, और जेबें भी काटते रहोगे। क्योंकि खुद की कोई दृष्टि तो नहीं है। और मजा यह कि खुद की दृष्टि न हो, तो एक अदभुत घटना घटती है। तुम थोथा पाखंड जीते हो; उसको समझते हो पुण्य और हर एक आदमी का पाप तुम्हें दिखाई पड़ता है--हरएक पापी! इससे अहंकार और मजबूत होता है।
यहां दूसरे की भूलें देखना बहुत आसान है। दूसरे की छोटी-सी भूल पहाड़ जैसी मालूम पड़ती है। तिल का ताड़ हो जाता है। अपनी भूल दिखाई ही नहीं पड़ती। क्योंकि अपने भूल देखने के लिए जागरूकता चाहिए, ध्यान चाहिए ।
और तो काम कभी-कभी आता है। घंटों उस पर मेहनत करते हैं। चमकाना । सजे बजे खड़े थे सब जनाब के पैंट के बटन ही खुले हैं! फिर फौजी भाषा तो तुम जानते ही हो! एकदम चिल्लाया, अरे कुत्ते के पिल्ले! अरे उल्लू के पट्ठे ! पैंट के बटन बंद कर शर्म नहीं आती। इसी वक्त बंद कर
मैंने सुना एक सेनापति अपनी फौज का निरीक्षण कर रहा था। सारे फौजी सज-बज कर आए थे। बड़ा सेनापति आ रहा था। और फौजियों का अधिकतम काम सजना ही बजना है। तो कपड़े - लोहा -कलफ ! जूतों पर पालिश रगड़-रगड़ कर -- संगीनों पर मालिश। संगीनों को चमकाना । तलवारों को और सेनापति बड़ा प्रसन्न था। तभी उसने देखा कि एक भनभना गया ।
वह जवान बोला...। घबड़ा गया। सकपका गया। उसने कहा, हुजूर, अभी यहीं !
उसने कहा, अभी यहीं पूछता क्या है। बंद कर
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और उस जवान ने सेनापति के पैंट के बटन बंद कर दिए। खुले हुए थे। मगर कौन कहे। वह
तो जब उसने बंद किए, तब सेनापति को पता चला !
जिंदगी बड़ी अजीब है यहां यहां दूसरे के दोष दिखाई पड़ जाते हैं; अपने दोष दिखाई नहीं पड़ते । दिखाई भी कैसे पड़ें। अपने दोष को देखने के लिए भीतर की आंख चाहिए । पाप न करो। हिंसा न करो। अच्छे काम करो। सच बोलो। तुम कहते हो रजनीकांत, हम संन्यासी इसी रास्ते पर जाने की कोशिश करते हैं, तो हमारा विरोध क्यों विरोध इसीलिए कि तुम सच में ही इस रास्ते पर जा रहे हो। कोई नहीं चाहता कि सच में ही तुम इस रास्ते
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