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ज्यों था त्यों ठहराया
मैंने कहा कि मैं सिर्फ यह पूछे रहा हूं कि यह माइक जो रखा गया है, साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि माइक से बोलना है! बोलो माइक से, मुझे कोई एतराज नहीं। मैं तो कहता हूं कि बोलना ही चाहिए। एक जैन साध्वी मुझे मिलने आई। देखा, उसने पैर पर कपड़े की पट्टियां बांध रखी हैं। मैंने पूछा, क्या हुआ! तो वह बोली कि अब धूप है और पैर में छाले हो गए हैं।
मलता है। नाहक ये चिंदियां बांधना! इससे जूता क्यों नहीं पहन लेती? जूते का शास्त्रों में विरोध है! तो चप्पल पहन ले। चप्पल तो थी नहीं उस समय, तो चप्पल का कोई विरोध है भी नहीं। मैंने कहा, शास्त्र में तो मैं रास्ता निकाल सकता हूं। चप्पल का उल्लेख ही नहीं है। चप्पल पहन ले। देख, मैं चप्पल पहनता हूं कि नहीं! शास्त्र सम्मत एक ही बात करता हूं बस। कि जूता नहीं पहनता। जूता मुझे रास नहीं आता। तू चप्पल पहन ले।। और चप्पल तो अब प्लास्टिक की बन सकती है; रबर की बन सकती है। चमड़े का जूता बनता था उन दिनों, इसलिए महावीर ने कहा कि चमड़े का जूता मत पहनना। कपड़े का जूता बनता नहीं था। रबर का जूता बनता नहीं था। नहीं तो मना नहीं करते। क्योंकि चमड़े का मतलब है कि हिंसा होगी। किसी न किसी जानवर को मारा जाएगा। उसकी खाल उधेड़ी जाएगी। मत करना इतनी हिंसा। मगर अब तो कोई सवाल नहीं है। अब तो प्लास्टिक की भी चप्पलें हैं, जिसमें किसी की कोई मृत्यु नहीं होती। और फिर ये इतनी पट्टियां बांधना और गंदी पट्टियां, क्योंकि वह रास्ते पर चलेगी पट्टियां बांध कर। सारा पैर बंधा हुआ है कपड़े से!... तो उसने कहा कि वह ठीक है। लेकिन मैंने अपने गुरुदेव को पूछा। तो गुरु ने कहा कि इतना कर सकती है कि पट्टियां बांध सकती है। वे भी बांधते हैं पट्टियां--गर्मी के दिन में। स्वभावतः महावीर चलते थे, तो मिट्टी थी रास्ते पर; अब सीमेंट है। सीमेंट ही नहीं, कोलतार की सड़कें हैं। और गर्मी में कोलतार पिघलता है, उस पर जैन मुनि और साध्वियों को चलवाना! नर्क होगा कहीं आगे--इनको नाहक यहीं नर्क में डाल दिया! कोलतार गर्म हो जाता है, पिघल जाता है--उस पर इनके पैर जले जाते हैं। अब ये न पहनें जूते, तो कपड़े बांध लेते हैं। मगर कपड़ा बांधना--यह बेहूदा ढंग हुआ! जूता है क्या आखिर? कपड़ा बांधने का ही ठीकठीक, समुचित, वैज्ञानिक रास्ता है। लेकिन इस तरह का पाखंड पैदा हो जाता है। अच्छे काम की धारणा तुम अगर दूसरे से लोगे रजनीकांत, तो इससे पाखंड पैदा होने वाला है। हिंसा न करो--समझाया जाता है। मगर तुम्हें कुछ बोध नहीं है, आत्मबोध नहीं है। तुम जो भी करो, उसमें हिंसा हो जाएगी। कैसे बचोगे हिंसा से? जैनों के हिसाब से तो फल भी खाना हिंसा है--क्योंकि उसमें भी जीवन है--वृक्ष में। फल में भी जीवन है। फल तोड़ना हिंसा है; जब तक कि फल पक कर अपने आप न गिर जाए।
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