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ज्यों था त्यों ठहराया
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थे। उसने मेरी बात सुनी। फिर जब ध्यान के लिए बैठने का मौका आया तो वह अपने कमरे में चली गई। कालिदास भाटिया हैरान हुए कि ध्यान के लिए ही तो हम यहां आए हैं। तो वे गए भागे, भूरिबाई को कहा कि बात तो इतने गौर से सुनी, अब जब करने का समय आया, तो आप उठ क्यों आई तो भूरिबाई ने कहा, तू जा, तू जा! मैं समझ गई बात | कालिदास बहुत हैरान हु कि अगर बात समझ गई, तो ध्यान क्यों नहीं करती। मुझसे पूछा आ कर कि मामला क्या है माजरा क्या है! भूरिबाई कहती है, बात समझ गई, फिर ध्यान में क्यों नहीं करती? और मैंने उससे पूछा तो कहने लगी तू जा, बाप जी से ही पूछ ले!
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मुस्कुराती है और जब मैं
भूरिबाई सत्तर साल की थी, मुझसे बाप जी कहती थी... कि तू बाप जी से ही पूछ ले तो मैं आपके पास आया हूं, कालिदास बोला। वह कुछ बताती भी नहीं; आने लगा तो कहने लगी-तू कुछ समझा नहीं रे मैं समझ गई । तो मैंने कहा, वह ठीक कहती है, क्योंकि ध्यान मैंने समझाया अक्रिया है और तूने जा कर उससे कहा कि भूरिबाई, ध्यान करने चलो! तो वह हंसेगी ही, क्योंकि ध्यान करना क्या ! जब अक्रिया है, तो करना कैसा ! और मैंने समझाया कि ध्यान है चुप हो जाना, सो उसने सोचा होगा भीड़-भाड़ में चुप होने की बजाय अपने कमरे में चुप होना ज्यादा आसान है। इसलिए ठीक समझ गई वह। और सच यह है कि उसे ध्यान करने की जरूरत नहीं है। चुप का उसे पता है, हालांकि वह उसको ध्यान नहीं कहती, गया। वह सीधी-सादी गांव की स्त्री है।
क्योंकि ध्यान शास्त्रीय शब्द हो
जब वह वहां से लौट कर गई शिविर के बाद, तो उसने यह सूत्र अपनी झोपड़ी पर किसी से कहा था कि लिख दो।
तुम्हें कहां से इस सूत्र का पता चला, वेदांत भारती ।
चुप साधन, चुप साध्या, चुप मा चुप्प समाय ।
चुप समझारी समझ है, समझे चुप हो जाय ।।
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चुप ही साधन है, चुप ही साध्य है। और चुप में चुप ही समा जाता है। चुप समझारी समझ है। अगर समझते हो, समझना चाहते हो तो बस एक ही बात समझने योग्य है--चुप समझे चुप हो जाए और समझे कि चुप हुए। कुछ और करना नहीं है चुप समझारी समझ है।
आप बाई को कह दो, आपकी
उसके शिष्यों ने मुझसे कहा कि हमारी तो सुनती नहीं, मानेगी, आपका कभी इनकार न करेगी। आप जो कहोगे, करेगी। आप इससे कहो कि अपने जीवन का अनुभव लिखवा दे लिख तो सकती नहीं, क्योंकि बेपढ़ी-लिखी है मगर जो भी इसने जाना हो, लिखवा दे। अब बढ़ी हो गई, वृद्ध हो गई, अब जाने का समय आता है। लिखवा दे। पीछे आएंगे लोग, तो उनके काम पड़ेगा।
मैंने कहा कि बाई लिखवा क्यों नहीं देती? तो उसने कहा, बापजी, आप कहते हैं, तो ठीक है। अगले शिविर में जब आऊंगी, तो आप ही उदघाटन कर देना लिखवा लाऊंगी।
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