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ज्यों था त्यों ठहराया
हमारी अब तक की आदत और व्यवस्था यह रही है कि तत्क्षण नाल काटो, फिर बच्चे को सांस लेनी पड़ती है। सांस उसे इतनी घबड़ाहट में लेनी पड़ती है, क्योंकि नाल से जब तक जुड़ा है, तब तक मां की सांस से जुड़ा है, उसे अलग से सांस लेनी की जरूरत भी नहीं है। और उसके पूरे नासापुट और नासापुट से फेफड़ों तक जुड़ी हुई नालियां सब कफ से भरी होती हैं, क्योंकि उसने सांस तो ली नहीं कभी! तो एकदम से उसकी नाल काट देना, उसे घबड़ा देना है। कुछ क्षण के लिए उसको इतनी बेचैनी में छोड़ देना है। उस बेचैनी में बच्चे रोते हैं, चिल्लाते हैं, चीखते हैं। और हम सोचते हैं वे इसलिए चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं कि यह सांस लेने की प्रक्रिया है, नहीं तो वे सांस कैसे लेंगे? और अगर नहीं चिल्लाता बच्चा, तो डाक्टर उसको उलटा लटकाता है कि किसी तरह चिल्ला दे। फिर भी नहीं चिल्लाता, तो उसे धौल जमाता है कि चिल्ला दे! चिल्लाना चाहिए ही बच्चे को। चिल्लाए-रोए, तो उसका कफ बह जाए, उसके नासापुट साफ हो जाएं, सांस आ जाए। मगर यह जबर्दस्ती सांस लिवाना है। यह झूठ शुरू हो गया, शुरू से ही शुरू हो गया! यह प्रारंभ से ही गलती शुरू हो गई। पाखंड शुरू हुआ। सांस तक भी तुमने स्वाभाविक रूप से न लेने दी! सांस तक तुमने कृत्रिम करवा दी, जबर्दस्ती करवा दी। घबड़ा दिया बच्चे को। यह खूब स्वागत किया! यह खूब सौगात दी! यह खूब सम्मान किया। उलटा लटकाया, धौल जमाई, रोना सिखाया; अब जिंदगी भर धौलें पड़ेंगी, उलटा लटकेगा, शीर्षासन करेगा। यह उलट-खोपड़ी हो ही गया! और जिंदगी भर रोएगा--कभी इस बहाने, कभी उस बहाने। इसकी जिंदगी में मुस्कुराहट मुश्किल हो जाएगी। झूठी होगी, थोपेगा। मगर भीतर आंसू भरे होंगे। इस मनोवैज्ञानिक ने अलग ही प्रक्रिया खोजी। वह मां के पेट पर बच्चे को लिटा देता है। बच्चा धीरे-धीरे सांस लेना शुरू करता है। जब बच्चा धीरे-धीरे सांस लेने लगता है और मां के पेट की गर्मी उसे अहसास होती रहती है और मां को भी अच्छा लगता है, क्योंकि पेट एकदम खाली हो गया, बच्चा ऊपर लेट जाता है तो पेट फिर भरा मालूम होता है। वह एकदम रिक्त नहीं हो जाती। फिर सब चीजें आहिस्ता। क्या जल्दी पड़ी है? नहीं तो जिंदगी भर फिर जल्दबाजी रहेगी, भाग-दौड़ रहेगी। जब बच्चा सांस लेने लगता है, तब वह नाल काटता है। फिर बच्चे को टब में लिटा देता है ताकि उसे अभी भी गर्भ का जो रस था वह भूल न जाए; गर्भ की जो भाषा थी वह भूल न जाए। टब में वह ठीक उतने ही रासायनिक द्रव्य मिलाता है, जितने मां के पेट में होते हैं। वे ठीक उतने ही होते हैं, जितने सागर में होते हैं। सागर का पानी और मां के पेट का पानी बिलकुल एक जैसा होता है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने खोजा है कि मनुष्य का पहला जन्म सागर में ही हुआ होगा, मछली की तरह ही हुआ होगा। इसलिए हिंदुओं की यह धारणा कि परमात्मा का एक अवतार मछली का अवतार था, अर्थपूर्ण है। शायद वह पहला अवतार है--मत्स्य अवतार, मछली की तरह। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे नरसिंह अवतार--आधा मनुष्य, आधा पशु। और शायद अभी भी
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