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ज्यों था त्यों ठहराया
मुसलमान! जो भीतर गया, वहां तो सब विशेषण गिर जाएंगे; वहां तो रह जाती है शुद्ध चेतना। और उस चेतना को ही पा लेना, सब कुछ पा लेना है--सच्चिदानंद को पा लेना है। वह जो ऋषि की पुकार है, वहां पूरी हो जाती है--असतो मा सदगमय! तमसो मा ज्योतिर्गमय! मृत्योर्मा अमृतंगमय! हे प्रभु, मुझे असत से सत की ओर ले चल, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर! ध्यान में एक साथ ये तीनों ही रहस्य तुम पर बरस आते हैं; अनायास यह प्रसाद उपलब्ध हो जाता है। संस्कृति तुम्हें सत्य बनाती है। संस्कृति तुम्हें आलोकित करती है। और संस्कृति तुम्हें अमृत बनाती है। क्योंकि संस्कृति तुम्हें समय के पार ले जाती है--जहां कोई जन्म नहीं, जहां कोई मृत्यु नहीं। जब तक अमृत न पा लिया जाए, तब तक जानना जीवन व्यर्थ है।
दूसरा प्रश्नः भगवान, चुप साधन, चुप साध्य, चुप मा चुप्प समाय। चुप समझारी समझ है, समझे चुप हो जाए।। भूरिबाई के इस कथन पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
वेदांत भारती! भूरिबाई से मेरे निकट के संबंध रहे हैं। मेरे अनुभव में हजारों पुरुष और हजारों स्त्रियां आए, लेकिन भूरिबाई अनूठी स्त्री थी। अभी कुछ समय पहले ही भूरिबाई का महापरिनिर्वाण हुआ, वह परम मोक्ष को उपलब्ध हुई। उसकी गणना मीरा, राबिया, सहजो, दया--उन थोड़ी-सी इनी-गिनी स्त्रियों में करने योग्य है। मगर शायद उसका नाम भी कभी न लिया जाएगा, क्योंकि बेपढ़ी-लिखी थी; ग्रामीण थी; राजस्थान के देहाती वर्ग का हिस्सा थी। लेकिन अनूठी उसकी प्रतिभा थी। शास्त्र जाने नहीं और सत्य जान लिया! मेरा पहला शिविर हुआ, उसमें भूरिबाई सम्मिलित हुई थी। फिर और शिविरों में भी सम्मिलित हुई। नहीं ध्यान के लिए, क्योंकि ध्यान उसे उपलब्ध था--बस, मेरे पास होने का उसे आनंद आता था। एक प्रश्न उसने पूछा नहीं, एक उत्तर मैंने उसे दिया नहीं। न पूछने को उसके पास कुछ था, न उत्तर देने की कोई जरूरत थीं। मगर आती थी, तो अपने साथ एक हवा लाती थी। पहले ही शिविर से उससे मेरा आंतरिक नाता हो गया। बात बन गई! कही नहीं गई, सुनी नहीं गई--बात बन गई! पहले प्रवचन में सम्मिलित हुई। उस शिविर की ही घटनाएं और बातों का संकलन साधना-पथ नाम की किताब है, जिसमें भूरिबाई सम्मिलित हुई थी। पहला शिविर था, पचास व्यक्ति ही सम्मिलित हुए थे। दूर राजस्थान के एक एकांत निर्जन में, मुछाला महावीर में। भूरिबाई के पास हाईकोर्ट के एक एडवोकेट, कालिदास भाटिया, उसकी सेवा में रहते थे। सब छोड़ दिया था--वकालत, अदालत। भूरिबाई के कपड़े धोते, उसके पैर दबाते। भूरिबाई वृद्ध थी, सत्तर साल की होगी। भूरिबाई आई थी। कालिदास भाटिया आए थे, और दस-पंद्रह भूरिबाई के भक्त आए थे। कुछ थोड़े-से लोग उसे पहचानते
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