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ज्यों था त्यों ठहराया
तब वे तत्क्षण बोले कि यह मेरे कुछ साथियों को महत्वाकांक्षा थी प्रधानमंत्री होने की, चौधरी चरणसिंह को महत्वाकांक्षा थी प्रधानमंत्री होने की, उनके कारण सब बर्बाद हुआ। अब यह बड़ा मजा है कि चौधरी चरणसिंह को परमात्मा ने नहीं बनाया? चौधरी चरणसिंह को नियति ने नहीं बनाया प्रधानमंत्री! सिर्फ मोरारजी भाई के लिए परमात्मा ने भाग्य में लिखा! चौधरी चरणसिंह की खोपड़ी में बिलकुल नहीं लिखा? ये अपनी कोशिश से बन गए!
और बड़ा मजा यह है, तब तो चौधरी चरणसिंह परमात्मा से भी बड़े हो गए! क्योंकि परमात्मा मोरारजी देसाई को बनाता है प्रधानमंत्री और चौधरी चरणसिंह उनको खिसका देते हैं, और खुद प्रधानमंत्री बन जाते हैं। तो परमात्मा से भी ज्यादा शक्तिशाली हो गए। ढोल की पोल बहुत ज्यादा दूर नहीं होती। झूठ बोलोगे, अगर जरा आंख होगी पहचानने वाले में, तत्क्षण पकड़ जाओगे। मगर इस पत्रकार की पकड़ में नहीं आया। पत्रकार तो उनको पैर छू कर गया। पैर छूता हुआ चित्र छपा हुआ है साथ में कि पत्रकार न उनके चरण छुए। कि कैसा धन्यभागी व्यक्ति, परमात्मा ने जिसको प्रधानमंत्री बनाया! उस पत्रकार को नहीं दिखाई पड़ा कि यह बड़ा मजा है, चौधरी चरणसिंह को भी परमात्मा ने ही बनाया होगा फिर, फिर इंदिरा को भी परमात्मा ने ही बनाया होगा! मगर अभी ये ही पुराने उपद्रवी, अब फिर एक मुहिम उठा रहे हैं--इंदिरा हटाओ। परमात्मा ने बनाया है इंदिरा को, तुम किसलिए हटाने की चिंता में लगे हो? क्या परमात्मा से दुश्मनी ले रखी है? नहीं, और किसी को परमात्मा नहीं बनाता, मोरारजी देसाई को भर परमात्मा बनाता है। बाकी सब अपनी कोशिश से बन जाते हैं! यह परमात्मा सिर्फ इनके ही साथ है! ये तथाकथित मुखौटे लगाए हुए लोग कहेंगे कुछ, करेंगे कुछ। इनके मंतव्यों पर भरोसा मत करना। ये संस्कृति के लक्षण नहीं हैं। हां, सभ्यता यही धोखा सिखाती है, यही पाखंड सिखाती है। सभ्यता पाखंड है। मैं सभ्यता-विरोधी हूं, संस्कृति का पक्षपाती हूं। लेकिन संस्कृति ध्यान के बिना नहीं मिलती। संस्कृति शब्द में खतरा है, क्योंकि शब्द बनता है संस्कार से। संस्कार के दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ तो कि दूसरों के द्वारा दिए गए, दूसरों के द्वारा आरोपित, दूसरों के द्वारा सिखाए गए। और दूसरा अर्थ हो सकता है परिष्कार का; ध्यान के द्वारा निखारे गए। जो लोग संस्कृति का संस्कार से ही संबंध जोड़ कर रह जाते हैं, वे शब्द को तो समझ गए, लेकिन शब्द के भीतर छिपी हुई आत्मा से चूक गए। शरीर तो शब्द का समझ में आ गया, लेकिन आत्मा छिटक गई हाथ से। संस्कृति संस्कार ही नहीं है, क्योंकि संस्कार से सभ्यता बनती है। मां-बाप ने सिखाया--ऐसे उठो, ऐसे बैठो; इस मंदिर में जाओ, इस मस्जिद में जाओ; यह शास्त्र पढ़ो। ये सब संस्कार हैं। तो हर बच्चे को संस्कारित करते हैं हम। जनेऊ पहना देते हैं, तो उसको कहते हैं--यज्ञोपवीत संस्कार! फिर ऐसे संस्कार होते ही रहते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कार
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