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जैन श्रमण संघ का इतिहास
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से सब प्राणियों के प्रति चित्त में अणुमात्र भी द्रोह जैन साधु न कच्चा जल पीता है, न अग्नि का स्पर्श म करना ही अहिंसा का सच्चा स्वरुप है। और इम करता है, न सचित्त वनस्पति का ही कुछ उपयोग स्वरुप को जैन-मुनि न दिन में भन्नता है और न रात करता है । भूमि पर चलता है तो नंगे पैरों चलता में, न जगते में भूलता है और न सोते में, न एकान्त है, और आगे साढ़े तीन हाथ परिमाण भूमि को में भूलता है और न जन समूह में ।
देखकर फिर कदम उठाता है। मुख के उष्ण श्वास __ जैन-श्रमण की अहिंसा, व्रत नहीं महावत है। से भी किसी वायु आदि सूक्ष्म जीव को पीड़ा न महावत का अर्थ है महान् वृत, महान् प्रण । उक्त पहुँचे, इसके लिए मुख पर मुखवत्रिका का प्रयोग महावत के लिए भगवान महावीर 'सव्वाओ पाणाइ- करता है। जन साधारण इस क्रिया काण्ड में एक वायो विरमण' शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसका विचित्र अटपटेपन की अनुभूति करता है। परन्तु अर्थ है मन वचन और कर्म से न स्वयं हिंसा करना, अहिंसा के साधक को इस में अहिंसा भगवती के न दूसरों से करवाना और न हिंसा करने वाले दूसरे सूक्ष्म रूप की झाँको मिलती है। लोगों का अनुमोदन ही करना । अहिंसा का यह
सत्य महाव्रत कितना ऊचा आदश है ! हिसा को प्रवेश करने के वस्तु का यथार्थ ज्ञान ही सत्य है। उक्त सत्य लिए कहीं छिद्रमात्र भी नहीं रहा है । हिंसा तो क्या, का शरीर से काम में लाना शरीर का सत्य है, हिंसा की गन्ध भी प्रवेश नहीं पा सकती।
वाणी से कहना वाणी का सत्य है, और विचार में __एक जनाचाय ने बालजावो को हिसा का मम लाना मन का सत्य है । जो जिस समय जिसके समझाने के लिए प्रथम महायत के ८१ भंग वर्णन लिए जैसा यथार्थ रूप से करना, कहना एवां समझना किये हैं। प्रवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, चाहिए, वही सत्य है। इनके विपरीत जो भी त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्विय, और पंचेन्द्रिय-ये नौ प्रकार सांचना, समझना, कहना और करना है, वह असत्य के संसारी जीव हैं। उनकी न मन से हिंसा करना है। न मन से हिंसा कराना, न मन से हिंसा का अनुरोदन सत्य, अहिंसा का ही विराट रूपान्तर है । सत्य करना । इस प्रकार २७ भंग होते हैं। जो बात मन का व्यवहार केवल वाणी से ही नहीं होता है, जैसा के सम्बन्ध में कही गई है, वही बात वचन और कि सर्ग-साधारण जनता समझता है। उसका मूल शरीर के सम्बन्ध में भी समझ लेनी चाहिये । हां, उद्गम-स्थान मन है। अर्थानुकूल वाणी और मन तो मन के २७, वचन के २७, और शरीर के २७, का व्यवहार होना ही सत्य है। अर्थात् जैसा देखा सब मिल कर ८१ भंग हो जाते हैं।
हो, जैसा मुना हा, जैसा अनुमान किया हा, पैसा जैन साधु की अहिंसा का यह एक संक्षिप्त एवं ही वाणी से कथन करना और मन में धारण करना, लघुतम वर्णन है। परन्तु यह वर्णन भी कितना सत्य है। वाणी के सम्बन्ध में यह बात अवश्य महान और विराट है ! इसी वर्णन के आधार पर ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल सत्य कह देना ही
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